Dr. Deepak Soni   (डॉ. दीपक राजसमंदी)
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Joined 1 June 2017


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20 MAR AT 22:18

खोए रहते हैं ख्वाबों के ख़यालात में
ख़यालत में उनके दीदार के आलाप में

सारी शब गुज़ार दी यादों के मुक़्तुबात में
मुक़्तुबात के अपने ही जवाब में

बहुत समय गुज़रा मिलने की आस में
मिलने पर खिल उठें नए गुल के साथ में

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9 FEB AT 21:01

तेरी मोहब्बत के इत्रदान में मैं महका हुआ हूँ
दिल से नादान बहका हुआ तो हूँ

गर लगता हूँ तुझकों गुनहगार मैं
मोहब्बत की शब-ए-बारात का मारा तो हूँ

आफ़ताब के सायें में खोया हुआ हूँ
क़मर की चाँदनी में मयक़दा में तो हूँ

तेरी एक झलक पा कर मुतासिर हुआ हूँ
अब तू ही देख ले मैं तेरे क़ाबिल तो हूँ

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10 JUN 2024 AT 23:14


तेरे ख़्वाबों के सैलाब में मैं समंदर भर शराब पी गया,
खुमार-ए-वफ़ा की चाह में मैं बेख़ुमार ही रह गया।

कुछ ऐसा मंजर देखा मेरी इन फ़क़त आँखों ने,
दिन रोशन जुगनुओं के नाम हुआ रात को रोशन आफ़ताब कर गया।

ज़िंदगी की चादरों पर पड़ी सिलवटे अब ख़ामोश रहने लगी हैं,
लगता है वो भी मेरी तरह ख़ुद ही ख़ुद से मगरूर रहने लगी हैं।

अब रातों के अंधेरे सायें मुझे डराते नहीं हैं,
लगता हैं अंधेरे में मेरी बैचेनी मेरे साथ रहती हैं।

अक्सर मैं चला जाता हूँ झील किनारे के मुहाने पर “दीपक”,
वहाँ यादों के पिटारों का अस्क मुझे पानी में नज़र आता हैं।

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25 MAY 2023 AT 22:17

गर्मी की सुहानी शाम और झील किनारे का वो मदमस्त आराम
ठंडी हवा के वो झोंके और तेरी यादों के अनकहें पैग़ाम
मन में उफनते सैलाब और चेहरे पर मदमस्त मुस्कान
फिर हक़ीक़त का एहसास और ख़्वाबों से तकलूफ़ का ख़ुमार।

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25 MAY 2023 AT 22:14

गर्मी की सुहानी शाम और झील किनारे का वो मदमस्त आराम
ठंडी हवा के वो झोंके और तेरी यादों के अनकहें पैग़ाम
मन में उफनते सैलाब और चेहरे पर मदमस्त मुस्कान
फिर हक़ीक़त का एहसास और ख़्वाबों से तकलूफ़ का ख़ुमार।

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27 FEB 2023 AT 14:13

शज़र की छांव तले बशर, सकूँ की तलाश कर रहा।
दुनियाँ की सफ़ से रुसवा हुआ, ख़ुद की सफ़ तराश रहा।
यूँ तो कई अरसा गुज़र ग़ैरों के हिसाब से, ख़ुद के हिसाब से राँह बदल रहा।
ज़िंदगी गुज़ार दी तौर-तरीक़ों की मिसाल में, अब बुझहल की मिसाल वों पा रहा।
यें तो चंद अशआर हैं “दीपक”, सिरफिरा मदमस्त अपनी राह मचल रहा।

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5 FEB 2023 AT 21:24

ज़िम्मेदारिया तो फ़िज़ूल में ही बदनाम हैं “दीपक”
कुछ लोग ज़िंदगी जीने का सबब देते हैं।

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27 JAN 2023 AT 20:32

यू बेशक कर दिया जाए सर कलम,
ग़र हो ख़ता मोहब्बत में ज़रा।

यू बेइंतहा लगायें जाये दाग़ मेरे दानम पर,
ग़र कोई मिल जाए शहर में शरीफ़ ज़रा।

यू तो रात हुआ करती हैं रोशन चाँदनी से,
ग़र अमावस को जुगनुओं का सहारा हैं ज़रा।

यू तो लोग करते हैं रोशन अपने घर को जला के दिया,
ग़र आशिक़ आग लगा घर में रोशन करता हैं जहां ज़रा।

यू तो मोहब्बत में आशिक़ होते हैं आशिक़ी से फ़ना,
ग़र फ़ना मोहब्बत को दिल में सजा जीना हैं ज़रा।

यू तो जर्रे-जर्रे में मेरे पीर का सदक़ा हैं “दीपक”,
ग़र महबूब के सदक़े में क़बूल हो हर दुआ ज़रा।

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16 MAY 2022 AT 15:51

कल एक जनाज़े की भीड़ ने ही कह दिया,
मौत ज़िन्दगी का आयना होती हैं।

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4 MAY 2022 AT 22:33

हवा की पुरवैयों में तपिश नज़र आती हैं,
तेरे मेरे दरमियाँ मोहब्बत की कशिश नज़र आती हैं,
ये तिलस्म है तेरी नूरानी आँखों का “दीपक”,
जो हरसु हर तरफ़ तू ही तू नज़र आती हैं।

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