Dr. Akanksha Gupta   (Dr. Akanksha Gupta)
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हर हर महादेव 🪷
Joined 27 May 2019


हर हर महादेव 🪷
Joined 27 May 2019
19 APR AT 0:28

सुना है आहट हुई,
लगता है हर रास्ता लौट घर आया है।

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15 APR AT 18:35

लिखने वाले से मत पूछो क्या टूटा था वो हजार कहानियां बुनते है एक किरदार को लेकर।

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15 MAR AT 21:56

ये किसकी बेतहाशा कसक है तुझे,
तुम तो किसी का इंतजार नहीं हो।

ये क्या खोने से विचलित है नैन तेरे,
तुम तो उसे पाने कि होड़ में नहीं हो।

ये कैसी उलझन में उलझे जबाब तेरे,
तुम तो हिस्से में सवाल के नहीं हो।

ये कब तक बेचैन रहे दुपेहरी तुझसे,
तुम तो इन घंटों की गुलाम नहीं हो।

ये क्यों चौखट से आकांक्षा है बंधे,
तुम तो किसी का घर भी नहीं हो।

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10 MAR AT 11:47

ये सितारों की ख्वाईश है चाँद,
और चाँद के हिस्से रात आती है।

ये तारो की बाते; पूछे किरदार तेरा,
हिस्से आकांक्षा के पूरी रात आती है।

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9 MAR AT 22:36

ये सितारों की ख्वाईश है चाँद,
और चाँद के हिस्से रात आती है।

ये तारो की बाते; पूछे किरदार तेरा,
हिस्से आकांक्षा के पूरी रात आती है।

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2 DEC 2024 AT 22:08


ये बुनती के धागे उधेड़ एक झूठ का जाल बुना है,
एक किस्सा लिखा है लिखा सच से रिश्ता लिखा है।

ज़माने ने ऐतेबार रखा आज जुबां पे हमारी,
जब सवाल पर तुम्हारे इंकार पर इज़हार रखा है।

ये सालों से आंखों की हमारी चोरी छिपी ,
ये दो शीशो में रुप तेरा उतार रखा है।

ये किसकी प्रीत में बंधी है ये पागल,
क्या अंदाज से ज़माने ने चर्चे में बांध रखा है।

जिनसे इश्क़ भी ज़रा रुसवा वो आशिक दिवाने तुम्हारे,
तुम्हारी आकांक्षा ने नाम तुम्हारा महज़ ख्याल रखा है।

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30 NOV 2024 AT 1:02

इक पूरी ज़िन्दगी की कुंजी कमाता है पिता लुटा कर जवानी अपनी,
और लोग वक्त को कहते है कंधे से कंधों तक आ गई गुड़िया तुम्हारी।

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10 JUL 2024 AT 13:24

"लौट आये है क्षितिज से परिंदे वो नसीब पर थे जिन्हें,
इक 'आकांक्षा' जो खिड़की का आसमान भी बांधें।"

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27 APR 2024 AT 10:03

मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है,
ये मद से व्यथित हृदय की काया है।
सूरमे के भीगे पल्लव नहीं,
ये पूर्वाह्न का अंजन है।
ये काले घन के प्रीत नहीं,
ये अल्हड़पन का साया है।
ये कालचक्र तंज़ भरा इक व्यूहन है,
मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है।
जो त्याग फिर श्रंगार दिया,
दर्पण में सवालों का सवाल रहा है।
ये प्रेम गीत में बसने वाले,
उस दिये ने बाती को मार दिया है।
ये पहर रात का कटता है,
मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है।
ये फिर सूर्य भोर में मिल रहा,
पर व्यथित अध्रो की वाणी है।
तुम तो अश्कों की धारा नहीं,
तू पलाश द्वन्द्व की काया है।
अब अश्क कहे या अंगार कोई,
कौन दर्पण की छाया मथता है।
कठपुतली का धागा बुनता,
इक ओर पर्दा उधर उठा है।
तुमने जैसी जानी "आकांक्षा",
दर्पण भोर चढ़े वैसी छाया है ।

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4 APR 2024 AT 16:27

काश हुबहू आता वो "Phir kabhi" जिसकी मुझे आस थी।

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