मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है,
ये मद से व्यथित हृदय की काया है।
सूरमे के भीगे पल्लव नहीं,
ये पूर्वाह्न का अंजन है।
ये काले घन के प्रीत नहीं,
ये अल्हड़पन का साया है।
ये कालचक्र तंज़ भरा इक व्यूहन है,
मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है।
जो त्याग फिर श्रंगार दिया,
दर्पण में सवालों का सवाल रहा है।
ये प्रेम गीत में बसने वाले,
उस दिये ने बाती को मार दिया है।
ये पहर रात का कटता है,
मृगनयनी दर्पण की अटकी छाया है।
ये फिर सूर्य भोर में मिल रहा,
पर व्यथित अध्रो की वाणी है।
तुम तो अश्कों की धारा नहीं,
तू पलाश द्वन्द्व की काया है।
अब अश्क कहे या अंगार कोई,
कौन दर्पण की छाया मथता है।
कठपुतली का धागा बुनता,
इक ओर पर्दा उधर उठा है।
तुमने जैसी जानी "आकांक्षा",
दर्पण भोर चढ़े वैसी छाया है ।
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