Dपk_ डायरी..🇮🇳   (...✍️DपK_(01052024))
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Joined 26 May 2022


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हसरतें मज़दूर की हर रोज़ अधूरी रह जाती हैं,
घर की जरूरतों में दिहाड़ी जो पूरी हो जाती है।।

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इन्तेज़ार मुकम्म्मल हो गया था ख़्वाब में,
वो ख़्वाब भी मग़र इक ख़्वाब ही रह गया।।

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तपती गर्मी से
चंद बारिश की बूंदों ने..
"आज" की दोपहर को राहत दी है..
पर "मन" फिर भी व्यथित है
कि "कल" फिर धूप निकलेगी,
"कल" फिर दिन तपेगा।।

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हर शाम मुझे लाज़िमी है..
इक गज़ल की किताब और इक तू,
ग़र आज की शाम तू नहीं..
तो ये गज़ल की किताब ही काफ़ी है।।

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"स्वच्छंदता, संस्कारों को
गर्त में ले जाती है"।।

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खुद से भी प्यार करके देखो।

कब तलक करें इंतेज़ार किसी का,
अब अपनी तरफ़ निग़ाह करके देखो।

हर साँझ ढले घर के आईने में,
खुद का ही दीदार करके देखो।

मुश्किल है यार बफादार मिलना "दीपक"
खुद को ही अपना यार करके देखो।।

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तपिश तन्हाई की सहकर तो देखो,
सबब इंतेज़ार का समझना है तो,
तरसती निगाहों से बहकर तो देखो।
राहत की ख़ातिर बस इतना है करना
कि दिलबर को बाहों में भरकर तो देखो।

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हर रोज़ इक ही गुनाह करते हैं,
मुसलसल तेरा इंतेज़ार करते हैं।

सज़ा-ऐ-इंतेज़ार मायूसी ही सही,
इस सज़ा से भी हम प्यार करते हैं।

कमबख़्त हवा की आवाज़ सुनकर,
बेसुध निगाहों को बे-करार करते हैं।

बे-वजह तुम हमें बेबफा समझो,
इश्क़ मग़र तुम्हें बेशुमार करते हैं।

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काश! कि तुम ख़्वाब में आ मिलोगे,
गर सोते हैं तो यही इक ख़्वाब लेकर।।

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गागर सा दायरा है इन लफ़्ज़ों का,
और..
सागर से भरे हो तुम रग-रग में मेरे।

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