जीवन के कालचक्र में उलझता चला जाता,क्षण भंगुर हैं ये सारा संसार,
राम को था अपनी ज्ञान का अभास पर रावण को ज्ञान का अहंकार!!
देख कर जलती हुई पार्थिव शरीर को,आया मन में एक अदृश्य विचार,
मेरी गति भी एक दिन यही होनी है तो क्यों कर रहे हम व्यर्थ का अहंकार!
तृष्णाओं से प्यास बुझती नहीं कही, रिश्तो को पैसो से तौल किया शर्मसार,
ना हीं कोई अपना,ना हीं कोई पराया फिर भी जीने की चाह हैं......अपार !
चेहरे से झलकता इर्ष्या के भाव मानो विरासत में मिला खानदानी संस्कार,
गरीबों को चार पैसे दान कर सुर्खियां बटोरते हजार यह कैसा है उपकार!
असहाय पर निर्मम करते अत्याचार,यही हैं इनके पतन का............ अधार,
राजा हो या महाराजा द्वेष,जलन की भावना ने किया सम्राज्य का बंटाधार!
त्रेता युग हो या द्रौपद युग इस विनाशकारी बुद्धि से नर नारी हुए तार -तार ,
राजमहल हो या छोटी सी कुटिया आपसी रंजिशसे हुए आज निराधार !
देश हो या प्रदेश जहां मिलती नहीं प्रेम की भाषा अहम से गिरता सरकार ,
ये हैं नश्वर राग, जिसमे समहित क्रोध, लोभ, विनाश, होता तिरष्कार..... !
-