कई बार हम नही देख पाते
हमारे आस-पास दिखने वाले
उदास लड़के क्योंकि
इनकी उदसी होती है
पुरानी किताब के बीच लिखी
किसी खोजी ना जाने वाली पंक्ति की भाँति,
जिसे पढ़ने के लिए
ना जाने कितने ही पन्नों को पलटना होगा
जिसके मिल जाने पर
ना ही इनका दुःख तीव्र होगा
और ना ही भुलाए जाने योग्य
परंतु इसके पश्चात
जन्म लेती है संभावना
उस किताब के आगे ना पढ़े जाने की
इसी कारण ये हमें पहुँचने नही देते
अपने जीवन की किताब में
उस पंक्तिरुपी दुःख तक !
कुछ समय के अभाव में और
कुछ अपनी उदासी लिए
नहीं देख पाते इन उदास लड़कों को!
पर मैं ना समझते हुए भी
देख सकती हूँ इन्हे और शायद
अपने शब्दों में दे सकती हूँ
थोड़ा समय इनकी उदासी को!
-Khushi Pandey
-
@truly.poetical
सरलता,गहनता और कल्पना से
अपनी शून्यता को ढाँकती "मै... read more
समाज देखता आ रहा अपना सुख
स्त्रियों के अबला रह जाने पर,
यद्यपि इस पर स्त्रियों का सशक्त होते जाना
शून्य करता रहा इस सुख को सदा!-
मैं जीवन की उथल-पुथल तुम उसपर कवि की कलम कोई,
भड़के तो कविता लिख दे...जो सरल लिखे तो गज़ल कोई!
-Khushi Pandey-
मेरे मन का प्रेम कभी
हुआ जग का रहा ना मेरा
दबता रहा भीतर जी भर
गया इक-इक कर जब घेरा
कहे ना मुझसे ना करे जतन
मन-मन में बड़बोला
चुप रहते जब बन ना पायी
जा शब्दों संग तब खेला
आधी कही बनी उससे तो
पड़ गया तनिक अकेला
तब डर से खुशी बुलाकर
मुझसे कुछ-कुछ बोला
लिए प्रेम संग मन देहाती
आज हुआ है मेरा
फिर आज हुआ है मेरा!
-Khushi Pandey
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मुझसे प्रेम करना यदि मेरे अव्यवस्थित जीवन में,
रोक सको तुम स्वयं का दर्पण होेते जाना....!-
एक समय बाद प्रेम को देखना ऐसा है
जैसे अरसे में उतरे हो शहर अपने,
जहाँ की जानी-पहचानी गलियों में हो
शोर पहले से कहीं अधिक
और मकान भूल चुके हों
तकना खिड़कियों को....
तभी तुम्हारे कदमों को रोक देगी
बगियों की अधिक हरियाली
जिसमें खिल गयी हों नयी कलियां
बढ़ती टहनियों के साथ
हों जहाँ गहरी जड़ें,
तभी पीछे से एक आवाज
तुम्हें ले जाना चाहेगी पुनः यात्रा पर
और तुम नियत प्रेम को धकेल कर भी
बचा ना सकोगे हृदय को आघातों से!
-Khushi Pandey-
जन-जन हृदय प्रभु युक्ति सी,
नई ज्योति अलौकिक भक्ति की!
है हर विरोध का विराम,
गूँजा चारों ओर प्रभु जय श्री राम!
तिथि-समय-दिन विचार कर,
प्रभु आ गये निज धाम पर!
क्षण में घुला त्रेता सा-रस,
अमृत्व है प्रभु का दरश!
जन्मों-जन्म का साज है,
इतिहास का जो आज है!
नयन-नीर संग शुभागमन,
हरषें धरा,नल-नील,मन!
नयनों में सबके के नीर है,
हृदयों में कैसी पीर है!
इस क्षण को भी मैं कह सकूँ,
मेरी लेखनी में अब ना धीर है!
"जय जय श्रीराम"
-Khushi Pandey-
संसार के वाक्यांशों के मध्य
मैं मिलूँगी तुम्हे शब्दों के उस विराम पर
जहाँ चुनकर अक्षर तुमने पूर्ण कर ली हो,
"परिभाषा" मेरे वर्णमाला रूपी जीवन की !-
कई बार हृदय की भाँति
"पेड़ के नीचे पड़ी बेंच"
को भी रहती होगी
प्रतीक्षा प्रेम की,
"प्रेम" जो अरसे से
बंद खिड़की को
पार कर यहाँ आ ठहरे
अपने पुराने कुछ
किस्से दोहराने,
परन्तु रह जाती होगी
झरते पत्तों के साथ
ये प्रतीक्षा भी अधूरी,
साथ ही वहीं-कहीं
चिन्हित रह जाती होगी
वो बंद खिड़की,
और सम्भवतः
हृदयों के आघात भी !-