मुसाफ़िर मरते होंगे राहों पर , मेहबूब पे शायर
मैं ना जाने कौन हूं? राहों पे चलती हूं मंजिल से डरती हुं
इबादत मोहब्बत की , मोहब्बत की ही हरदम तौहीन करती हूं
ऊंचे आसमां को देखते देखते दरिया से गहरे सपने बुनती हुं
दरख्तों पे घर , पर जमीं पर पड़े "पर" देख मैं हैरान होती हुं
ऊंची उड़ानें, जमीं पर पड़े दाने!!मैं ये कैसे कर लेती हुं ?
पर इसी अंतर में मैं जीवन का सार खोजती हुं समझती हुं
खुदा , मोहब्बत, शक्सियत, दोस्ती, रिश्ते मिट्टी का घर हो जैसे
बनाकर तोड़ने का बचपना मैं हर मर्तबा आख़िर क्यूं करती हुं
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