जी चाहता है तोहफे में भेजूं उन्हें तंदुरुस्त आंखें !
जिन्हें हुकूमत से इनाम-ए-वफादारी के ख्वाब आते हैं !-
आदमी अपने मतलब के लिए पहाड़ के कंकड़ ढोता है,
यह कशाकश बेरहम जिंदगी में कौन किसका होता है !
मुर्दा तस्वीर में नुस्खे निकालने से क्या फायदा,
कभी आईने से नजर मिले तो अपना इहतराम मालूम होता है !!-
जुबान मुर्दा हो गई है ,
सुकून-तालिब ज़हन , बे-आराम सर्द रात सह रहा था !
रहबर अब गैर-जरूरी हो चुका है,
सैलाब करीब है , जो अब तक खामोश बह रहा था !!
तालिब- seeker
रहबर- guide-
जुबाने मुर्दा हो गई है ,
सुकून-तालिब ज़हन, बे-आराम सर्द रात सह रहा था !
रहबर अब गैर-जरूरी हो चुका है,
सैलाब करीब है , जो अब खामोश बह रहा था !!
तालिब- seeker
रहबर- guide-
अब उनके खत भी देर से आने लगे हैं
लगता है समंदर अपने पैर फैलाने लगे है !!
अगर नहीं तो मुमकिन है कुछ नाराजगी होगी
अगर नहीं तो बहेलिए हवाओं में पिंजरे लगाने लगे है !!-
यह जो अखबारों में लिखा है,
सब गलत क्यों बता रहे हैं ?
मीनार और ढाल पिघलाकर ,
सब खंजर क्यों बना रहे हैं ?
दुश्मन का कोई सुराग भी नहीं ,
नाम पूछने पर आइना क्यों दिखा रहे हैं. ?
अंधेरे में कितने साल बीत गए ,
अब रोशनी के लिए मेरा घर क्यों जला रहे हैं ?-
छोड़ा जो तूने शांति पथ, लहू यहां भी जल रहा
क्रोध तुझमें है अगर, दुगना यहां भी पल रहा!
जो नाश तू है चाहता, मैं सर्वनाशी बनू
तू अगर हाजी अली तो, आज मैं काशी बनूं !
बात कर यथार्थ की, द्वेष की ना स्वार्थ की
खून जो तेरा बहा, रंग मेरा भी वही !
कर कल्पना विचार कर ,क्रोध को नकार कर
स्वीकार ना हो शांति,तो तू पहला वार कर !
इंसान जैसी खाल में, कंकाल सब कहलाएंगे
खुद ही खुद को मारकर वीरता लहराएंगे !
कौन है जिम्मा लिए, लाश लेकर जाएगा
भूखी बैठी घर पे मां को प्यार से बताएगा !
हिंसा हुई इंसानों में, इंसान ही था डर गया !
इंसान के ही वार से, इंसान सारा मर गया !!-
तू शुन्य और मैं सृष्टि हूं,
तू अंधकार ,मैं दृष्टि हूं !
तू विषधर है ,मैं नीलकंठ,
तू कल भर है मैं हूं अनंत !
सर्वोपरि मैं ,पाताल है तू,
मानव जीवन का काल है तू !
दुष्ट प्रचंड ,घनाघन तू ,
मैं मौन, प्रकांड ,सनातन हूं !
तू कण भर है, मैं कण कण में ,
तू क्षणभर है, मैं हर क्षण में !
तू नन्हा है अभी बालक है,
वह विकट समक्ष जो पालक है !
तू है कुरूप,मैं पुरुषोत्तम ,
तू है निकृष्ट ,मैं सर्वोत्तम !
तू शिथिल शांत है गागर सा,
मैं वृहद ,अनंत हूं सागर सा !
तू है विनाश ,हलाहल है
मैं आदि अनंत कोलाहल हूं !
तू टहनी सा ,मैं विकट वृक्ष,
मानव जीवन परिदृश्य प्रत्यक्ष !
अंधकार पर्याय है तू,सूर्यतेज सा लाल हूं मैं ! जिस रण का तू महा योद्धा है उस रण में तेरा काल हूं मैं!!-
किसी ने मटकी से पूछा कि तुम इतने ठंडे कैसे रहते हो ??
तो मटकी ने उत्तर दिया, मेरा अतीत भी मिट्टी है और मेरा भविष्य भी मिट्टी है तो गर्मी किस बात की !-
उसे लगता था मैं ख्वाब बुन रहा हूं
ज़रा दूर रहो,अंदर सैलाब बुन रहा हूं !-