आदतें,
किसी के साथ मुस्कुराने की,
किसी के संग साथ निभाने की,
उन डगमगाते रास्तों का सफर,
यूंही तय कर जाने की,
और अंत में... उन रास्तों की खुशबुओं में खुदको मदहोश पाने की।
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सच कहूं तो,
तब भी एक एहसास बाकी सा रहता था,
की इतनी भी खुश नही हु में,
वो लम्हा फिर मुझे हमेशा यू कटा कटा सा लगता था।
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हां सच कहा... इतनी भी खुश कहां थी मैं,
नादान थी,
अपने परायों से अंजान थी,
नए नए लोगो के संग अपने तजुर्बे बनाना शायद, मुझे कुछ ज्यादा ही भाता था।
दो से चार, चार से ग्यारह इन्ही गिनतियों में तो वक्त बिताना कुछ ज्यादा ठीक लगता था।
पर वो वक्त बदला,
और शायद खोई हुई में भी।
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अब, कुछ खास याद नही पर,
याद है तो वो लोग जो मेरे अपने थे,
याद हु में,
जिसे दिल दिमाग का फर्क करना कभी आता ही नहीं था,
हां सच कहा,
बचा तो कुछ खास नहीं अब,
पर अब भी वो एहसास बाकी है,
वो एहसास जहा इंसान को,
उसकी खुशी रास कहा आती है।।
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