वो खुली किताब सा बंद था,
जिसने मेरे हर पन्ने को महकाया था
वो उस कलम की स्याही सा था,
जिसने लिखना मुझे सिखाया था
वो उन आज़ाद परिंदो सा था,
जिसने उड़ना मुझे बतलाया था
वो कोयल सा जब गाता था,
मै तितली बन मुस्काती थी
वो चुपके से जब आता था,
मै कलियों सी खिल जाती थी
वो घंटों बाते करता था,
मै भी खूब उसे सताती थी
वो जब पानी सा बन जाता था,
मै भी शरबत बन उसमें घुल जाती थी
वो बनता बड़ा बेवफा था,
पर मै भी बेवफाई की हदो से निकलकर आई थी
वो जाता था जितना दूर मुझसे,
मैं उसे उतना ही करीब लाई थी
शायद वो कुछ अनकहे जज़्बात ही रहे होंगे,
जिनको न वो कभी जता पाया
और न ही मैं समझ पाई थी.......
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