नेताजी चले जीतने लोकतंत्र का सिंहासन,
बीच चौराहे खड़े हुए हैं कलियुग के ये दुःशासन,
कुर्सी रूपी देख नारी को लगे सभी चिल्लाने,
"मेरी है ये, मेरी है ये" लगे सभी बतियाने,
लोभ-प्रलोभ की चली गोटियाँ सबने बारी-बारी,
इसी बीच शकुनि ने फिर से बाजी मारी,
दुर्योधन को किया भ्रमित उस कुटिल कुमारगगामी ने,
संसद की पावन धरती को कुकृत्यों से बदनाम किया,
विदुर रूपी संविधान यह देख बहुत झल्लाया,
कूटनीति का पाठ विदुर ने फिर सबको समझाया,
द्वापर से कलियुग तक यही दृश्य दोहराया है,
कुर्सी रूपी नारी का आनंद सभी ने उठाया है,
जैसे धृतराष्ट्र की अंध सभा में विद्वान सभी थे मौन खड़े,
कलियुग का तो हाल न पूछो कृष्ण स्वयं हैं मौन पड़े,
इतने सबके बावजूद भी कुर्सी वही बेचारी है,
मस्ला तो ये है जनाब अब किस दुःशासन की बारी है।
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