दिव्य दीप   (🌄दिव्य दीप🌄)
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Joined 20 October 2020


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वो दौर अलग था
जब क्षमा-शुक्रिया की
जगह नहीं थी दरमियान..
ये वक्त और है कि
इन्हीं से बंध गया ये धागा तेरा...!!

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ओह प्रेमी!
मैं तुम्हें छोड़ रही।
कारण : तुम्हारे लिए
बहुत कठिन है
आलोचना करना ,
तुमने सिर्फ सुंदरता देखी
और मुग्ध हुए ।
किन्तु बिना आलोचना
मैं भ्रम हूँ ,
वास्तविक कुछ नहीं।

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मिले होते गर जिंदगी की दोपहर में
तो बात और थी ,
ये कमबख्त सुबह में जाम बहुत है...!

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ओह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ
हां तुम्हीं से कहा ,
लोकतंत्र के जरूरी मुद्दों पर
तुम्हारी चुप्पी,
मणिपुर से लेकर पंजाब तक ,
लद्दाख हो , उत्तराखंड या हसदेव ,
चुनाव आयुक्त हो या चंदा
हर मुद्दे पे चुप्पी!
सुचना कवरेज में नाकामी
विश्व भर में तुम्हारी बदनामी...!!
ओह बेबस, गुलाम, मजबूर मीडिया।
समझ सकती हूँ तुम्हारी मजबूरी ।
किन्तु हम मतदाता,
वादा रहा तुम्हें आजाद कराएंगें।

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....

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विरह के बाद
प्रेम निखर आता है
स्वर्ण सा सुनहरा..

प्रेम मिलन से ज्यादा
विरह ही तो है ।

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तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारा स्थान घेर लेंगी
वो यादें,
जिनमें सिर्फ तुम्हारा अक्ष है,
मगर तुम से परे...!
अब तुम मत लौटना
क्योंकि
शायद तुम पर नहीं मेरा हक
किन्तु तुम्हारी यादें
मेरी है
सिर्फ मेरी...!!

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I am too much comfortable with mute animals rather than mannerless human companion.

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दर पे वो आए ज्यों मुफलिस के घर अमीर आया,
वीरां किसी सहरा में बहता कहीं से नीर आया।

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ना चांद ना तारे
ना हवा लेंगे हम
लिखने की तेरी
ना कला लेंगे हम।

लेखन की तेरी ये
कला तुममें निखरे
बुलंदियां तेरे दर पे
यूँ मोती सी बिखरे।

ज़रूरत पड़ी तो
सखा पुकारेंगे तुमको
अपने समय से तब
मात्र पल देना हमको।

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