रूह मेरी क्यों जल रही
ये तपिश क्यों इतनी खल रही
ये ज़ख्म क्यों ना भर रहे
ये दर्द क्यों उभर रहे
किस कमी का गम है वो
आंखें इतनी नम हैं जो
क्यों आगे मैं ना बढ़ रहा
क्यों ख़ुद से ही हूं लड़ रहा
वो तो मुझसे से दूर है
फिर कैसा ये फितूर है
क्यों बैठा इंतजार में
बस उसकी एक पुकार के
जब गुम ही मेरा प्यार है
ये जीत भी अब हार है-
⚕️ veterinarian 🧑🏻⚕️
वो यूं बसी है मेरे मन में
अंतरमन के कण कण में
बातों में मेरी झलकने लगी है
ख़ुशबू सी बनके महकने लगी है
ऐसे वो मुझमें मौजूद है
बनाती मेरा वजूद है
मेरे दिल में जब से समाई है
दुनिया ना देती दिखाई है
मेरे ज़ख्मों को ऐसे भरे है
सही गलत के परे है-
सबर को मेरे बांध के,
जो एक नई उड़ान दे
बिना किसी थकान के,
जो हाल मेरा जान के
जलता मुझको देख के,
ना हाथ अपने सेक के
जो ज़ख्म को मेरे सीए
बेवजह मुझे जिए
बस यही पनाह रहे
या ज़िंदगी तनाह रहे-
अपना रिश्ता बस इस कदर रहे
हर बुरी नजर से बेअसर रहे
ना टूट जाने का डर रहे
ना छूट जाने की फिकर रहे
पतझड़ में जो थे बिखर रहे
सावन में फिर से संवर रहे-
अद्भुत तेरा ये छल था,
या मैं ही निर्बल था
जीवन के उस क्षण में
मेरे कण कण में
जो दुर्बलता झलकी थी
वो कहने को एक पल थी
तूने यूं मुंह मोड़ा था
एक पल में नाता तोड़ा था
जब सोचा तुझे मनाने को
मिलकर समझाने को
फिर देखा तेरे बहाने को
तब तेरे शब्दों से अर्थ लिया
तेरा एक पल ना व्यर्थ किया
गुमसुम सी उन रातों में
अपनी पीड़ा किसे सुनाता मैं
हां टूट कर था बिखर गया
मैं उस दौर से भी उभर गया
साथी की अब कोई चाह नहीं
फिर से वो मुश्किल राह नहीं-
घर से दूर एक घर सा है
जिसके बिना अपना शहर,
लगता बेघर सा है
ये सुकून का अहसास,
उसके होने का असर सा है
जिस पर भरोसा पूरा है,
पर उसे खोने का डर सा है
जो किसी रिश्ते के नाम से परे है
वो मेरे जीवन में उजाला धरे है
जिसके आंसू मेरे सीने को चीर जाए
जो बंजर जमीं पे भी नीर लाए
जो गुस्से में बादल सी बरसे है
जिसकी खातिर मेरा मन तरसे है
कृष्णा की जो राधा है
ऐसी तू मेरी मर्यादा है-
कैसे लिखूं मैं कहानी नयी
कलम है मेरी पुरानी वही
कहने को कुछ अब बाकी कहां है
पन्नों पे स्याही अब टिकती कहां है
हितैषी मेरे तंज़ कसे रहते हैं
रक्षक सभी सर्प बने बैठे हैं
शब्दों का मेरे अब वो मोल नहीं है
मन में वही है पर वो बोल नहीं हैं
लफ्जों की जंग से रुख मोड़ चुका हूं
कलम से लड़ना अब मैं छोड़ चुका हूं।-
है एक कथा ऐसी भी
जब मन की व्यथा वैसी थी
कहने को बातें कम थी
आंखें कुछ पल को नम थी
हृदय विचलित सा रहता
अपनी दशा किसे कहता
तो मौन धरे बैठा था
सबका मैं साथ निभाता था
फिर अकेला क्यों रह जाता था
छल कपट के इस जाल में
सत्य के अकाल में
हर कोई दोषी है जहां
लेकर मैं अपना भय वहां
कर्ण बनने की चाह लिए
कौरवों को पनाह दिए
धर्म युद्ध लड़ जाता हूं
हार भले ही जाता हूं
पर मित्रता निभाता हूं।-
परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है,
पर क्या हर नियम का पालन करना जरूरी है ?
जिस बदलाव के लिए आपका मन ना माने,
उसे कभी ना माने । 😇-
तेरी जीत में
तेरी हार में
तेरी हर एक पुकार में
हर पल मैं तेरे साथ हूं
देख तेरा विश्वास हूं
भय के इस अंधकार में
भू , नभ और पाताल में
आत्मज्योति सा जला हूं
साथ तेरे मैं खड़ा हूं
तेरे हर संघर्ष में
तेरी विजय स्पर्श में
हर पल मैं तेरे साथ हूं
देख तेरा विश्वास हूं।-