चट्टान से गिरी वो.. पर उसकी बुलेट पे तख्त मिल गया.. अंधेरे में उसे अख्तर दिख गया.. शाम-ओ-सेहर उसकी सोहबत में बीत गया.. उसकी आंखों का अश्क इसके गालों से बह गया
रोज़ रोज़ मोहब्बत की लो से क्यों जला रहे हो... अंधेरे में जगा ..दिन में क्यों सता रहे हो... आशिक हैं तुम्हारे और भी.. तो फिर मेरा कफन क्यों छुपा रही हो...
से झांकती वो अपने अंधेरे कमरे से.. सूर्य अस्त देखनी की चेष्टा करती छुपके छुपके छोटी से एन्ना फ्रैंक बच्ची वो.. छुपी हुई किसी कोने में हिटलर की दहशत से बचने में..
और टूटना है तेरी यादों में कांच सा बन बिखर जाना है इतना तड़पना है कि इस हालत को अपनाना है कत्ल ऐ कातिल से नए नजरिए को स्वीकारना है अश्कों को अंधेरे में छोड़ दिन में मुस्कुराना है मदिरा को त्याग अब मेहनत को गले लगाना है कर्म को ही जीवन बनाना है..