जान पहचाना अजनबी
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एक कोयल रात्रि के इस प्रहर आवाज़ लगा रही है,
संकोच हो रहा कहने में कि वो गा रही है।
समान्यतः रात्रि के इस प्रहर सन्नाटे की ही गूँज रहती है,
जाहिर है मधुर धुन भी समय पर न हो तो चुभती है।
आवाज़ में इसकी व्यकुतला जाहिर है,
मैं इसे न जानते हुए भी जैसे समझ पा रही हूँ जाहिर है।
वो भले अनजानी हो, अनिद्रा, व्याकुलता जानी पहचानी है।
मधुर होकर भी बहरहाल तीक्ष्ण इसकी वाणी है।
शायद इसी तरह बहुत से लोग जो अजनबी होते हैं,
फिर भी वेदना, संवेदना इत्यादि के तार से जुड़े होते हैं।
कोई भाव, कोई बात,याद या ख़याल जोड़ता है उन्हें बखूबी
जो बनाता है उन्हें आपस में जाना पहचाना अजनबी।
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