मैं लिख रही हूं पर शब्द मेरे हाथ से फिसल रहे हैं
भाव जो कहने थे सब अश्रु बन पिघल रहे हैं।
सिमटे सब जज़्बात भी,मन में न कोई बात है
जिसकी न सुबह कभी,ऐसी स्याह रात है
मन के सारे घाव,मौन रूदन में निकल रहे हैं
मैं लिख रही हूं पर शब्द मेरे हाथ से फिसल रहे हैं।
घुट रहा अंदर ही अंदर,शोर जो दबा हुआ
चुभ रहा कोई जख्म गहरा,हृदय में लगा हुआ
दिल दिमाग आज,दोनों मुझे छल रहे हैं
मैं लिख रही हूं पर शब्द मेरे हाथ से फिसल रहे हैं।
रह गया कागज ये कोरा,लेखनी भी मौन है
हो रही हैरत ये मुझमें,अजनबी सा कौन है
बोल मचलते से जो थे,खामोशी में ढल रहे हैं
मैं लिख रही हूं पर शब्द मेरे हाथ से फिसल रहे हैं।
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