! शहर !
चेहरा तेरा हया सा क्यूँ है?
शहर अब भी नया सा क्यूँ हैं?
जाम में गुजारी शामें कई,
जाने रातें इतनी खफा सी क्यूँ हैं?
मशरुफ राह में इक मुसाफिर,
मंजिल फिर बेवफा सी क्यूँ हैं?
देते रहे तासीर शम्मा की,
तू खुद ही यूं बुझा सा क्यूँ हैं?
चेहरा तेरा हया सा क्यूँ हैं?
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कुछ शील-सा कठोर,
कुछ निर्मल जल!
कुछ गागर में सागर-सा,
कुछ अम्बर-सा बल!
आमोद जग की समग्र,
काया कल्पित करती है,
उकेरी स्याही कागज़ों पर;
वाकई कमाल करती है....!-
कोई दफ़न कर रहा ज़ख्म सारे हँसकर,
और किसी को मुफ्त की ख़ुशी हजम नहीं है!-
कृष्ण-अर्जुन सी मित्रता,
अभीष्ट उदाहरण दर्शाती है!
केवल अभिनय पात्र मात्र से,
आत्मार्पित हो जाती है!-
❤️पिता❤️
माँ के आँचल में बेहद;
महफूज़ महसूस करती हूँ,
पर उसका तन भी तो हर क्षण;
मुसीबतों से लड़ता फिरता है,
छत-सा पिता का होना;
बहुत मायने रखता है!-
भीगा-सा इक शहर,
जारी सफ़र की तरह..
तब भी प्यासा है शहर;
इक मुसाफ़िर की तरह..!-
नशे का तमाम जाम बाकी है,
ठहरने का इंतज़ाम बाकी है..
सोचा था ...२
आँसुओ से बुझा देंगे सारा गम;
पर कुछ अंगारे दहकना भी बाकी है..
मसला सर-ए-आम बाकी है,
इश्क़ क़त्ल-ए-आम बाकी है;
इंतज़ार में थे उनके फैसले के हम रात भर,
मगर इल्ज़ाम का सारा इम्तहान बाकी है...-
मरुभूमि में भी अस्तित्व जिंदा रहने को तत्पर है,
सिंचित खाद वाले तो कई जड़ जमाए सूखे है।-
इंसाफ की होड़ में,
मिली कैसी ये सीख..
दुविधा आ पड़ी कि अब,
अधिकार माँगे या भीख...!-