वो जगह छूट गया, ख़्वाब का मंज़र भी गया
साथ मेरा हमसफ़र, बाम से मंज़र भी गया
चाँदनी रात की ख़ुशबू थी गली के गोशे में
दूर तक फैल गया, दिल का वो महवर भी गया
बाग़ में बैठ के बातों की ख़िज़ां आई थी
फूल मुरझा गए, साया वो महशर भी गया
वक़्त के हाथ ने कच्चा सा धागा तोड़ा
रंग, आवाज़, हँसी, लम्स का ज़ेवर भी गया
अब तो यादों में ही ज़िंदा है वो बस्ती जाँ
वरना रस्ता भी नहीं, घर का वो पत्थर भी गया-
तुम्हें चाहा तो फिर चाहत का कोई नाम न रहा,
तुम मिले तो इस दिल में कोई और काम न रहा।
तेरे होने से मेरी दुनिया मुकम्मल हो गई,
तेरे बिन ज़िन्दगी में कोई भी मुकाम न रहा।-
एक शख़्स को भूलना था, बस उसी को याद किये जा रहा हूँ
अपने ही हाथों से दिल का जनाज़ा दिये जा रहा हूँ
जिसकी महक से साँसें कभी महफ़ूज़ थीं मेरी
अब उसी ख़ुशबू से ज़हर पिए जा रहा हूँ
राहें बदल के भी उसकी गली तक पहुँचता हूँ
अपने ही पैरों से ख़ुद को लिये जा रहा हूँ
आईना देख के डर जाता हूँ इन दिनों मैं
उसके बिना मैं जो हूँ, उससे छुपे जा रहा हूँ
लोग कहते हैं मोहब्बत को दफ़्न कर दो अब
मैं तो मिट्टी में उसका नाम लिखे जा रहा हूँ-
ऐ ख़ुदा मुझको मुझमें ज़िंदा रहने दे,
इस भीड़ में मेरी हस्ती को तनहा रहने दे।
हर सज़ा तूने बख़्शी है बेनाम सी मुझे,
अब तो मेरी रूह को इक सदा रहने दे।
ज़ख़्म दे के कह रहा है वक़्त मरहम है,
अब तो दिल को बग़ैर किसी दवा रहने दे।
मैं जो बिखर जाऊँ तो शिकवा न होगा तुझसे,
बस मुझे मेरे टूटे हुए हौसलों में रहने दे।
हर शख़्स में क्यों ढूँढूँ मैं अपना ही अक्स,
ऐ ख़ुदा मुझको मुझमें ही पूरा रहने दे।-
ग़ज़ल: "कब तक आँसू बहाऊँ मैं"
कब तक तेरी जुदाई में आँसू बहाऊँ मैं,
हर रात तेरी याद में तन्हा जलाऊँ मैं।
ग़म की चादर ओढ़ के, जी लूँ किस तरह,
हर साँस पे बस तेरा ही नाम दोहराऊँ मैं।
तू बेख़बर रहा मेरी हालत से हर दफ़ा,
किस दिल से तुझको अपना सनम बनाऊँ मैं?
हर एक मोड़ पे तूने दिए मुझको सितम,
फिर भी तेरी वफ़ाओं का क्यों भरम निभाऊँ मैं?
तू जो चला गया तो उजड़ गया है जहान,
अब किस उम्मीद पे फिर से दिल लगाऊँ मैं?-
शायद मेरी ही ख़ता थी, शायद मेरा ही क़सूर,
जो वो चली गई छोड़कर, बिना कहे कोई दस्तूर।
ना इल्ज़ाम दिया, ना किया कोई शोर,
बस ख़ामोशी में बयाँ कर गई दिल का हर ज़र्रा-ए-नूर।-
उसकी आवाज़ में था कुछ ऐसा सकून,
सुनते ही दिल छोड़ दे हर एक जुनून।
ग़ुस्से की आग भी ठंडी पड़ जाती थी,
वो लफ़्ज़ नहीं, जैसे थे रहमत का सक़ून।-
मैं शायर हूँ... झूठ तो लिखूँगा ही शायद,
कि सच ने ही तो सबसे ज़्यादा रुलाया है मुझे।
तू जो मेरी जान थी, हर मिसरे में बसती थी,
आज तेरा नाम भी लब पे लाना गवारा नहीं मुझे।
मैंने अश्क़ों से सींचा है हर फ़साना तेरा,
और तूने किसी ग़ैर को अपना खुदा बना दिया।
हर शेर में ढूँढता रहा मैं तेरा चेहरा,
और तूने मेरी तहरीर को मज़ाक़ बना दिया।
अब जो भी लिखता हूँ, वो इल्ज़ाम लगता है,
शायरी अब इबादत नहीं, इंतकाम लगता है।
मेरे अंदर जो मोहब्बत का दरिया था कभी,
अब बस सहरा है—ख़ामोश, बे-नाम लगता है।-