Diksha Joshi   (दीक्षा जोशी)
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Writing something, anything
Joined 25 January 2018


Writing something, anything
Joined 25 January 2018
11 FEB AT 13:37

सिलसिला बनाकर बैठे सभी,
अनगिनत शक्लें, मैं कौन?
बोलती हैं सभी ज़ुबाने,
मेरी भी, मन मौन।

दीवारें एक माप नजदीकतर हैं,
सुनती हैं लब्ज़ जो भीतर हैं।
वो नहीं सुनते जो सिहर दें,
जिनकी कमी से आंखें तर हैं।

ऐसे गिले हैं, सुने कौन?
चींख है मेरी, मैं मौन।

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10 DEC 2020 AT 1:16

पंद्रहवें दिन फिर हौसला छा जाता है।
पर छत पर चांद अमावसी आ जाता है।

पंखुड़ी से होंठ, खिंच कर मुस्कुराते हैं,
टूट जाते हैं फिर पत्तझड़ आ जाता है।

उनको लिए मीठा पानी कुछ दूर बहता है
बोझ के बढ़ते ही खारापन आ जाता है।

घरों की गंदगी बटोरना बड़प्पन देखता है
भीतर इसके मौत का मंज़र छा जाता है।

इसी सागर किनारे ज़िंदगी खोजने आयी मैं
खारी हवा से गुरदा छूट सा जाता है।

अमावस से भागी मैं दूर इस समुंदर तक
मगर चांद फिर भी अमावसी आ जाता है।

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17 MAY 2020 AT 16:54

Even the sunset, or
the welcoming of the husk,
won't kill the blossom.
And it blooms forever,
for now it has had
the flavour of some musk.

Talking about the dawn?
Even sunlight couldn't dry off,
the glow, the redness
of the flesh inside the petals,
not even its aged freshness.

It was only spring when,
the flower wanted butterflies
dancing over its scent.
Look at what the winters did.
It wants the moon to dew,
splashing the wetness
all over it.

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7 MAY 2020 AT 23:07

बस कहने भर को सोते हैं,
दिन के ढलते ही
खयाल नई फसलें बोते हैं।

पसंद, नापसंद, सब दस्तक देती हैं
सभी बातों पर सोचना मकबूल है।
घंटों खुली हुईं, छत तंकती रहती हैं
आंखें जानती हैं कि सब फिजूल है।

बरसों पुराने लोग
भूले किस्से फिर भी ढोते हैं,
खयाल मेरे अब
बस कहने भर को सोते हैं।

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14 APR 2020 AT 21:22

चिचिलाती दोपहर में तपा मेरा इश्क़ लाल
ढलते सूरज, आसमान सा मेरा इश्क़ लाल

पीला पतझड़ तो नारंग मैं, ऐसी भक्ति मेरी
तो किसी की क्या मजाल, मेरा इश्क़ लाल

आने दे बर्फीली रात भी, गुलाबी हो जाऊंगा
चट्टान है वो हूं मैं प्रेमजाल, मेरा इश्क़ लाल

तू भले बन जा घटा, मट मैला नहीं करूंगा
हूं मैं एक रेगिस्तान विशाल, मेरा इश्क़ लाल

जो कम पड़ें मौसम तो हूं मैं यहीं तेरे साथ
बन पड़े, नए मौसम निकाल, मेरा इश्क़ लाल

इंतज़ार ख़तम नहीं हुआ है मेरा कि एक दिन
जो खिलेगा फूल लाल वो हो मेरा इश्क़ लाल

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16 MAR 2020 AT 18:24

नन्हीं कली जैसा दिल
खिला नहीं, मुरझा रहा है।
धूप का इंतज़ार किया
सूरज ही जलाए जा रहा है।

उसकी झड़ी पंखुड़ी से
नए पौधे लगाएंगे ये।
क्यारियों की लालच में
घनी झाड़ उगाएंगे ये।

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3 OCT 2019 AT 21:59

मेरे अंदर के सीधे से इंसान को
बाहरी इंसानों की भनक ना लगे,
ख़ुद को कलाकार समझ बैठे हैं
मेरी कला किसी को सनक ना लगे।

बचपन से धितकार कर रखा
मैंने ऐसे तराशा है कवि को,
परे रखा इसके नेक ख़यालातों से,
इसके नर्म शब्दों से सभी को।

मैंने मन को नचाना भी छुड़वाया
किसी को घुंगरू की खनक ना लगे,
ख़ुद को कलाकार समझ बैठे हैं
मेरी कला किसी को सनक ना लगे।

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13 JUL 2019 AT 3:19

सामने डायरी पड़ी है ख़ाली
कलम हाथ में मैं लिए हूँ।
साथ है एक चाय की प्याली
जिसे अपने होठों से सिये हूँ।

कुछ लिखना तो है पर
हुज़ूर बुरा मान जाएँगे।
और ना लिखूँ जो है अंदर
तो आप जान भी ना पाएँगे।

कैसी कशमकश में रात डाली
और इस रात को सुबह किये हूँ।
साथ है एक चाय की प्याली
जिसे अपने होंठों से सिये हूँ।

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7 JUL 2019 AT 22:11

टूटी ही ख़ुश थी पहले
या अब वो बेख़ौफ़ है,
चर्खी से जुड़ने का है या
उसे उड़ने का शौक है?

(Caption में पढ़ें)

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1 JUL 2019 AT 22:39

उसी जगह पर टिकी हुई थीं आवाज़ें
उसकी सरगम किसी नए दहर की है,
आज उसके साथ हो लेना चाहता है
ये ख़ाना-ब-दोशी दिल पे नई सी है।

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