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जज्बात लिखती हूं☺️
सांसो को छलनी जिगर को पार करती है
यह कमबख्त खामोशी भी
बड़ी सलीके से वार करती है.....
..... Diksha-
सब कुछ खत्म हो जाता है, वक्त के साथ
बस एक यादें ही हैं,जिसे खत्म करने के लिए
खुद को खत्म करना होता है......
....Diksha-
बारिश इसलिए भी होती हैं
ताकि हम जिन पौधो को पानी नहीं दे पाते है
उन्हे पानी पर सके और जीवन में हमे कभी कभी
हार इसलिए भी मिलती है
ताकि हम अपनी मंज़िल के लिऐ रह गई
बची हुई कमी को पूरी कर सके......
Diksha— % &-
=_=ऐसे बहाने की क्या ज़रूरत थी=_=
मजबूरी समझ जाते हम
तुम्हें बहाने बनाने की क्या ज़रूरत थी।
झूठ रिश्ते को कमज़ोर करता हैं, यार
तुम्हे सच छुपाने की क्या ज़रूरत थी।
तुम जो चाहो वो कर लेते निभाना था निभाते
या छोड़ना था तो छोड़ देते, लेकीन
तुम ये बताओ हमेशा साथ रहूंगा तुम्हरे
ऐसी झूठी कसमें खाने की क्या जरुरत थी।
जब यकिन ही नहीं था तुम्हें मुझपर
तो हक़ जताने की क्या ज़रूरत थी।
हमें तोड़ने के लिए तुम अकेले ही काफी थे,
यूं दुनियां के सामने हमारा
तमाशा बनाने की क्या ज़रूरत थी।
---Diksha jha (झाजी)
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^__^अल्फाज़ मेरे एहसास आपके^__^
जिंदगी की राह पर मैं कुछ यूं चलती जा रही हूं,
हालात कितना भी चाहे मुझे गिराना
मैं पहले से ज्यादा अपने आज में
और भी संभलती जा रही हूं,
बुरे से बुरे वक्त में भी हौसला बनाकर रखा है,मैंने
वक्त भी मेरी काबिलियत को देख शायद
अपनी रफ्तार बदलती जा रही है,
कभी दूर दूर तक मुझे मंजिल नहीं दिखती थी
और आज अपने मंजिलों के साथ में,
मैं सफ़र तय करती जा रही हूं,
कुछ इस तरह मैं चलती जा रही हूं
तन्हाइयों के साथ ही मै अपनी
हवाओं सी बहती जा रही हूं,
ज़िंदगी की हर नई ठोकरों से मैं,
और भी संभालती जा रही हूं,
मुझे पता है मैं सच्ची हूं,
मुझे कुछ खोने का अब डर नहीं,
जितना तू मुझसे छीनती है,
उससे भी बेहतर मैं,तुझसे
कुछ न कुछ लेती जा रही हूं,
ऐ-जिन्दगी तू मुझे यूं नादान ना समझ
मैं आज भी तेरे चालाकियों से,
आगे निकलती जा रही हूं!
---Diksha jha (झाजी)
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^____^शब्द मेरे जज़्बात सबके^____^
तुरंत जवाब मांगती है
यहां दुनिया,
और एक हम हैं जो आज भी
विचारों में रहते हैं,
कितनी जल्दी पीछे से
आगे निकल जाते हैं,लोग
और एक हम हैं जो आज भी
जिंदगी की वही लंबी कतारों में खड़े रहते हैं,
जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं,यहां सबलोग
और एक हम हैं,
जो आज भी उधारो में ही जीते हैं,
आराम से बन जाते हैं
यहां काम सबके और एक हम हैं
जो आज भी जुगाड़ओं में रहते हैं,
सब जी रहे हैं अपनी खुशियां ऐस से
और एक हम हैं,जो आज भी
तन्हाई से बाहर निकलने के
इंतजारो में रहते हैं।
---Diksha jha-
फूलों की फुलवारी मां,बच्चों की किलकारी मां
थक कर चूर हो जाती है दिन भर के कामों से
फिर भी स्वाद मे वही लगती है,ताजा सी तरकारी मां
बटन टांकती प्यारी मां दुआ मांगती सारी मां
घर आने में देर करो तो राह ताकती हमारी मां
बच्चों की फुलवारी है तू मां बागों से भी प्यारी है तु मां
कभी चखु तुझे तो लगती तू शहद सी
कभी तू नमक सी भी लगती खारी है मां
रिश्तो की सरताज है हमसब का हमराज है तू
कहीं खो जाऊं भीड़ में
तो ढूंढ निकालने की आवाज है तू
नीम सी ठंडी छांव है तू
बहते टूटते परिवारों की नाव है तु
हर कोने में मिल जाती है तू
ना जाने कहां से इतनी शक्ति लाती है तू
रिश्ते कभी उदर जाते हैं
तो चुपके से सिल जाती है तू..............
दुखों के आंसू भरे नैनों में छिपाए
फिर भी सामने में हंसती और मुस्कुराती है तू
गे माई बोलना किस दुनिया से है तू.....
---- Dikक्षा
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अकेली हूं मुझे अब किसी की भी नहीं आस है
बस खो गई हूं दुनिया की इस मतलबी भीड़ में
खुद से ख़ुद की अब मुझको तलाश है।
---Dikक्षा-