न क्षुन्निवृत्तये वस्त्रं यथा कृन्तति मूषकः।
प्रकृत्या दुर्जनस्तद्वत्परकार्यविनाशकः।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः- यथा मूषकः क्षुन्निवृत्तये न वस्त्रं कृन्तति (अपितु) प्रकृत्या वस्त्रं कृन्तति तद्वत् दुर्जनः प्रकृत्या परकार्यविनाशकः भवति।
"भावार्थ"
जैसे चूहा अपनी क्षुधा निवृत्ति(पेट भरने) के लिए नहीं वस्त्रों को काटता है अपितु अपने स्वभाव के कारण ही वस्त्रों को काटता है उसी प्रकार दुर्जन,(दुष्ट) व्यक्ति भी अपने स्वभाव के कारण ही दुसरों के काम को बिगाड़ता है।-
संस्कृतसेवका:,संस्कृतभारती
कौशलमात्मविश्वासो वक्त्रं नापेक्षते क्वचित्।
एतस्मिन् विश्वसेत्तस्मान्मानवो यत्नपूर्वकम्।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः-कौशलम् आत्मविश्वासः (च) क्वचित् (अपि) वक्त्रं न अपेक्षते तस्मात् मानवः एतस्मिन् खलु यत्नतः विश्वसेत्।
"भावार्थ"
हुनर और आत्मविश्वास कहीं भी चेहरे का मोहताज नहीं होता है।अतः मानव को प्रयत्नपूर्वक इसमें विश्वास करना चाहिए।
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासकाः
संस्कृतभारती-
"श्रीरामनवमीम् आलक्ष्य मङ्गलकामनाः"
"सर्वविभक्तिमयरामस्तुतिकाव्यम्"
रामो रावणहा रमाप्रियतमो रामं रमेशं नुमो,
रामेण प्रहतो निशाचरचयो रामाय तस्मै नमः।
रामाच्छ्रेष्ठतरो नृपो न पुरुषो रामस्य भक्ता वयम्,
रामे बुद्धिलय: सदा भवतु नो हे राम!नो रक्षतात्।।
"वात्स्यकोश:"
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासका:
संस्कृतसेवका: संस्कृतभारती
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"नवसंवत्सरम् आलक्ष्य मङ्गलकामनाः"
कल्पादिदिवसोऽस्माकं वर्षारम्भः सनातनः।
नवसंवत्सरो भूयो मङ्गलमातनोतु नः।।
"वात्स्यकोशः"
कल्प और युग के आदि दिवस है। जिससे सनातन वर्षारम्भ होता है।ऐसे नवसंवत्सर बार-बार हमारे जीवन में मंगल का विस्तार करे।
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासकाः
संस्कृतभारती-
"सनातनं भारतीयं नववर्षम् आलक्ष्य
भूरिशो मङ्गलकामनाः"
भारतीयं नवं वर्षं नवचैतन्यकारकम्।
युगाद्यं दिनमेतन्नः करोतु नवमङ्गलम्।।
नवाब्दं नवचैतन्यं प्रदेयान्नो मनोरथम्।
नवोत्साहं नवोद्योगं भारतीयं सनातनम्।।
"वात्स्यकोशः"
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासकाः
संस्कृतभारती-
हत्पुस्तकस्य पृष्ठन्न रिक्तं भवति किञ्चन।
यदपि लिखितं नास्ति पठन्ति तद्धि दृष्टयः।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः-हृत्पुस्तकस्य किञ्चन (अपि)
पृष्ठं रिक्तं न भवति।
यदपि लिखितं नास्ति दृष्टयः तद् हि(अपि) पठन्ति।
"शायरिकानुवाद:"
किताब-ए-दिल का कोई भी पन्ना सादा नहीं होता।
निगाहें वो भी पढ़ लेती है जो लिखा नहीं होता...।
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासकाः
संस्कृतभारती
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समस्या नास्ति सङ्घर्षो रुचिः प्रत्युत मत्कृते।
नापेक्षिता जयप्राप्तिरुन्मादो मम विद्यते।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः-मत्कृते सङ्घर्षः समस्या न अस्ति प्रत्युत(अपितु) रुचिः अस्ति। मत्कृते जयप्राप्तिः अपेक्षिता (आवश्यकता) न अस्ति प्रत्युत(अपितु) मम उन्मादः वर्तते।
भावार्थ
संघर्ष करना मेरे लिए समस्या नहीं,
बल्कि मेरा शौक है।
जीत हासिल करना मेरी जरूरत नहीं,
बल्कि मेरा जुनून है।
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वारिधेरिव गाम्भीर्यम् औन्नत्यन्नो गिरेरिव।
धरावच्चिन्तने धैर्यं विस्तारो व्योमवद् भवेत्।।
अन्वयः- नः (अस्माकम्) चिन्तने वारिधेः इव गाम्भीर्यं,गिरेः इव औन्नत्यं, धरावद् धैर्यं व्योमवद् विस्तारः भवेत्।
"भावार्थ"
हमारे चिंतन में सागर की तरह गहराई तथा पर्वत की तरह ऊंचाई तथा धरा की तरह धैर्य और आकाश की तरह विस्तार आदि का भाव होना चाहिए।
स्वच्छभाषाभियानम् सुरभारतीसमुपासकाः
संस्कृतभारती-
शिलावद्वचनं या नो कदापि परिवर्तते।
सम्बन्धस्तरुवद्यो नो जिह्रेति नमने सति।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः-न:(अस्माकम्) वचनं शिलावद् (भवेत्) या कदापि नो(न) परिवर्तते (तथा) तरुवत् सम्बन्धः (भवेत्) यः नमने सति (अपि) नो(न) जिह्रेति।
"भावार्थ"
जो कभी बदलता नहीं ऐसे पत्थर के
जैसा हमारा वचन होना चाहिए तथा
जो झुकने पर भी शर्माता नहीं ऐसे वृक्ष के
जैसा हमारा संबंध होना चाहिए।
वचन पत्थर जैसा होना चाहिए,जो कभी बदलता नहीं।
संबंध पेड़ जैसे होने चाहिए,जो झुकने से शर्माता नहीं।।-
शिलावद्वचनं या नो कदापि परिवर्तते।
सम्बन्धस्तरुवद्यो नो जिह्रेति नमने सति।।
"वात्स्यकोशः"
अन्वयः-न:(अस्माकम्) वचनं शिलावद् (भवेत्) या कदापि नो(न) परिवर्तते (तथा) तरुवत् सम्बन्धः (भवेत्) यः नमने सति (अपि) नो(न) जिह्रेति।
"भावार्थ"
जो कभी बदलता नहीं ऐसे पत्थर के जैसा हमारा वचन होना चाहिए तथा
जो झुकने पर भी शर्माता नहीं ऐसे वृक्ष के जैसा हमारा संबंध होना चाहिए।
वचन पत्थर जैसा होना चाहिए,जो कभी बदलता नहीं।
संबंध पेड़ जैसे होने चाहिए,जो झुकने से शर्माता नहीं।।-