शुभ नवरात्रि
आध्यात्म यात्री
मार्ग में तेजस्विता
कितने हो ग्राही।
धीरेन्द्र सिंह-
वक़्त अच्छा है यही
छोड़ो ना अब बतकही
स्पंदनों की जुगलबंदी
और हम हो खोए कहीं।
धीरेन्द्र सिंह-
माँ के आगमन पर
विश्व उन्नति की प्रक्रिया
माँ सब है स्वीकारती
धन्यवाद कहो या शुक्रिया।
धीरेन्द्र सिंह-
छोड़ना पड़ता है एक दिन
जो अपना है निज सपना है
पुनर्जन्म होता है फिर से
कर्म आधारित यूं जगना है।
धीरेन्द्र सिंह-
शांत रह कर कर्म करो
अपना भी निज धर्म करो
जीवन यही नहीं है अंतिम
गहन ज्ञान सत्कर्म करो।
धीरेन्द्र सिंह-
तुमसे बिछड़ना जैसे
मन का बिगड़ना वैसे
तार एक रह गया छूट
मन का तड़पना कैसे।
धीरेन्द्र सिंह-
जब जगह स्वतंत्र मिले
पुलक चहुं तंत्र खिले
आस सांस सुधि लिया
मनभावन तब मंत्र मिले।
धीरेन्द्र सिंह-
एक अधूरी दास्तां
चाहत को आंकता
गज़ब का पैबंद है
तृषित मन को हांकता।
धीरेन्द्र सिंह-
बस गए दहन में, मन हुआ सुगंधित
अनायास यूं अचानक हृदय स्पंदित
नेह अर्पण बना समर्पण भी राज है
भावनाएं बहक चली राह हुए दम्भित
धीरेन्द्र सिंह-