आजाद है परिंदा आज ये कैसे कहे !
मोहब्बत अब भी उसे तेरी कैद पसंद है...-
किसी रोज तो मुझपर इल्जाम आए ,
तकदीरें भली हैं इनके हिस्सें भी तो कुछ काम आए ।
मैं बहता-बहता पानी रहा जिंदगी भर ,
हक से इक किनारा तो मेरे भी नाम आए ।
और झूठी तस्वीरें मैं भी बनानें लगा हूं आजकल ,
की सच्चा होने का दाग मुझपर भी तो साफ आए ।
ख़ैर थोड़ा चुप रहना ही अब पसंद मुझे तो ,
क्या पता कब गद्दारी का फरमान सरेआम आए !
और यहां ऊच-नीच,जाति-पाति में कोई भेद नहीं ,
बस चुनावों में सबका नाम तो लिखा "आवाम" आए ।
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लगे हैं घाव सबके दिलो पर जोरो से ,
भला कोई दूसरे का दर्द क्यू समझें !
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अब क्या होगा जिंदगी ?
देखा जायेगा !
ना पैसे हैं दवा के ,
ना खाने के ,
ना आने के ना जाने के ,
सिर से छत छूटा ,
और तन की सिलवटें
फट रही हैं धीरे-धीरे ,
पर फिर भी उम्मीद है
कुछ तो होगा !
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जब से पसंद की चीजें पास रखने लगा हूं ,
लोग बताने में लगे हैं मैं क्या गलत करने लगा हूं !
पसंद आना बंद हो चुका हूं मैं सबको ,
जब से उनके तरीके से हिसाब मैं भी रखने लगा हूं ।
और जब से कोई उलझन नज़र आती नही मुझमें ,
अपने कहते हैं मैं सलीका बदलने लगा हूं ।
ख़ैर कुछ रोज पहले ही शराफ़त सीखी है मैंने ,
और लोग कहते हैं आजकल मैं बिगड़ने लगा हूं ।-
बहोत वफा थी उनकी बेवफ़ाई में ,
की वो आज भी सूरतें ढूंढकर
हमें नजरंदाज किए फिरते हैं ।-
शायद इक रोज आराम मिल जाए ,
दिल को किसी रोज मुकाम मिल जाए ।
तरसती हैं आंखे आसुओं के लिए ,
इन आसुओं को शायद उनका पैगाम मिल जाए ।
अबतक किस्मतों के छलावों में बैठी हैं ये ,
की कहीं किस्मतों में वो अधूरा चांद मिल जाए ।
और कितना दर्द छुपा के रखेंगी ये अंदर ,
सोचता हूं की दर्द को तो इक रोज आराम मिल जाए ।
ख़ैर इक रोज जोर-जोर से हस के दर्द बयां करना है ,
शायद कुदारतों को मेरा ये पैग़ाम मिल जाए ।
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# यारी_दोस्ती
जो मुसाफिर अलग बैठे हैं हमसे चुनावों में ,
कभी मेरे आसुओं से सहम जाया करते थे ।-
अरे तस्वीरें तो साफ होने दो ,
दिल टूटा है सच में ये अहसास तो होने दो ।
उनकी बाहों में लिपटे-२ अब तक बीती है शामें ,
मोहब्बत इतनी बुरी है,थोड़ी बात तो होने दो ।
वैसे किए गए वादें अब भी करवटें ले रहें हैं ,
मर चुके हैं ये सब पहले ही इन्हें विश्वास तो होने दो ।
खैर उन्होंने भुलाई है तो हमें भी भूलना है ,
पर कमबख्त दवा कौन-सी है ये याद तो होने दो ?
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