इक दिन बीता जैसे कि जिंदगी बिती,
लग रहा कि हो गई है श्रृष्टि की इति।
जो था पहले हो गया वही हयात-ए-कल,
सौ दिवस का लग रहा है एक-एक पल।।
जाने क्यूं फंसे हुए है मोह जाल में,
क्यों न हम समा जाएं काल गाल में।
क्या है ऐसा रोकता जो बार-बार है,
जबकि यहां झूठ का ही कारोबार है।।
चंचल मेरा मन अब एकांत चाहता,
कर दूं खुद को बिल्कुल विश्रांत चाहता।
अब नहीं बहाऊंगा कदापि चक्षु-नीर,
दिखेगी न पीर, बनूंगा मैं धीर-वीर।
-