Dharmendra Singh   (धर्मेंद्र सिंह)
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तुम्हें फुर्सत नही थी बात करने की ।
हमनें तनहाइयों को शब्दों में पिरो दिया ॥
Joined 12 March 2021


तुम्हें फुर्सत नही थी बात करने की ।
हमनें तनहाइयों को शब्दों में पिरो दिया ॥
Joined 12 March 2021
6 APR AT 3:33

ख्यालों में मेरे

ख्यालों में मेरे भी आती है वो,
कहीं है, कहीं की, कहीं से थी जो ।।

वो हँसकर पकड़ना, पकड़कर सिमटना,
बाहों में मेरी ही, जन्नत है, कहना ।।

वो कहना तुम्ही हो, वो जान-ए-मोहब्बत,
तुम्हारे सिवा, नहीं कुछ हकीकत ।।

तुमपे ही दिन होता, तुमपे ही रातें,
तुम्हारे ख़यालात, तुम्हारी ही बातें ।।

कहती थी कल तक मुझे जो खुदा,
कैसे रहेंगे हम, होकर जुदा ।।

भुलाया उसी ने हमें सबसे पहले,
मिलाया है रब ने कहती थी जो ।।

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23 JAN AT 1:03

नाकाम मोहब्बत को भी बड़ी शिद्दत से जिया है, तुम चाहकर भी मुझको नकार नहीं सकोगे !

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4 NOV 2024 AT 21:53

जिसके खोने का डर न हो !
उसे पाने में ख़ुशी कैसी ?

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6 APR 2024 AT 22:15

फ़साद की जड़ बस इतनी ही है,
उसे ख़रीदने की आदत है और हम बिकाऊ नहीं है ॥

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7 JAN 2024 AT 23:22

~*~ साथ तुम्हारे मेरे अनुभव ~*~

साथ तुम्हारे मेरे अनुभव, अद्भुत और अनोखे हैं,
कहीं-कहीं हैं धूप गुलाबी, कहीं पवन के झोंके हैं ॥

क्या कहूँ तुम्हें वे इतने मीठे, रबड़ी, रसगुल्ले भी फीके,
हैं कोमल इतने भाव हमारे, रेशम के धागों से प्यारे ॥

हाथ तुम्हारा, साथ तुम्हारा, आवाज़ तुम्हारी, शब्द तुम्हारे,
स्पर्श तुम्हारा, संबोधन मेरा, आलिंगन मेरे अनुभव है ॥

हृदय तुम्हारा, धड़कन मेरी, रात तुम्हारी, सपने मेरे,
खुली हुई आँखों के देखे, ख़्वाब, हमारे अनुभव हैं ॥

साथ तुम्हारे मेरे अनुभव, अद्भुत और अनोखे हैं,
कहीं-कहीं हैं धूप गुलाबी, कहीं पवन के झोंके हैं ॥

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22 DEC 2023 AT 13:20

मित्र कृष्ण सा, पुत्र राम सा और भरत सा भाई हूँ ।
सचराचर जग परिवार है अपना, सबकी अपनी प्रभुताई हूँ ॥

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22 DEC 2023 AT 13:17

वक्त ही नहीं मिला कभी, मैं क्या ही लिखूँ खुद के बारे में ।
मेरा परिचय शायद बस इतना कि, हर रिश्ते में दिख जाता है ॥

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14 DEC 2023 AT 7:24

हैं नभ में जितने चाँद सितारे ।
दृश्य-अदृश्य हो जितने सारे ॥
नही मेरे फैलाव का अंत ।
मैं ही आदि हूँ मैं ही अनंत ॥
है सकल चराचर जग है जितना ।
है सागर में बूँदों का गिरना ॥
नही थाह, हूँ कितना गहरा ॥
कहीं लहरता सागर हूँ,
कहीं-कहीं पर हूँ मैं सहरा ॥
कहीं धधकता सूरज हूँ तो,
कहीं मंद मैं शीतल छाया ।
कहीं घोर अँधेरा हूँ मैं तो,
कहीं चमकती काया ॥॥
कहीं ओर है कहीं छोर है ।
सत्य यही या सत्य है माया ??

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13 DEC 2023 AT 22:32

जनाज़े को गुमान था सर पर चढ़े होने का,
आग भी उन्होंने ही लगायी जिन्होंने सर पे उठाया था ॥

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7 NOV 2023 AT 8:00

आग जो लगायी है तुमने हमारे घर में,
तुम्हारा घर भी तो हमारे बग़ल में है ॥

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