Dhanwanti Mandora   (धनवंती मंडोरा)
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Joined 17 September 2020


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Joined 17 September 2020
1 MAY AT 21:40

दिशाहीन, उद्विग्न सी भागती मैं,
उस खुले साफ आसमान में तारों की चमक सी मैं,
हर नज़र में अपने सवालों का जवाब खोजती मैं,
उत्तर के बदले सवालों के बाणों से घायल लौटती मैं,
उन ज़ख्मों पर आसुओं का मरहम लगाती मैं,
अक्षुण्ण ही शून्य हो जाती मैं।
सुकून खोजती मैं, ख्याल बुनती मैं,
अपनी श्वास में विश्वास जड़ती मैं।।
विवेकी, सौम्य सी ठहरती मैं।।

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28 APR AT 10:40

कल रात मुझे फिर से दौरे पड़े थे,
तुम दोस्तों की याद से वो भरे पड़े थे।
फिर मैंने अपनी यादों की उल्टियां की,
तुम लोग तो नींदों में थे
उन उल्टियों से मैं ख़ुद भरी थी।
अब तुम्हें भी वो दौरे पड़वाऊंगी,
2-4 उल्टियां तुमसे भी करवाऊंगी।
सुकून के वो पल तभी मैं पाऊंगी,
अब तुम लोगों से मिल कर ही
मैं खुद मैं बन पाऊंगी।।

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28 APR AT 2:50

अरसे बाद भी वो इत्र मुझे कुछ यूं महकाये रखता है।
सौगात दोस्ती की है जो मुझे ख़ुद मैं बनाये रखता है।

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21 APR AT 22:54

ज़िंदगी के हर मुक़ाम पर हारकर भी सफल होती मैं,
और जीतकर भी असफल सा महसूस करती मैं।
एक ही रूह की दो अलग-अलग शख़्सियत मैं,
या किसी जटिल निर्जीव पैमाने में खुद को तोलती मैं।
सजीव नज़रिया रख सफ़र को दिलखुश बनाती मैं,
और इसी नज़रिये को मृगमरीचिका समझती मैं।
फल की कामना लिए असफ़ल होती मैं,
और पाँव ज़मीन पर टिकाये सफल होती मैं।।
मुस्कुराकर खुद को टटोलती मैं,
क्या मैं? क्यों ही मैं?

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20 APR AT 6:57

शोर से घिरी वो खामोशी खोजती हूँ।
चकाचौंध इस मन में रोशनी ढूंढती हूँ।

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11 APR AT 9:20

रिश्तों और स्व के बीच लुप्त होती मैं
खुद से ये बातें करती हूँ।
कि सफ़र जो कट रहा है
दूर कहीं सब धुंधला सा है।
मूंद कर आंखें बहने दूं अश्कों को
फिर सब कुछ खाली सा है।
बैचेनी के घाव पर
ये खालीपन भी मरहम सा है।

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4 APR AT 15:01

आये है कुछ लोग मेरी गहराइयां मापने,
अपनी अल्प-बुद्धि की उल्टी मुझ पर करने,
अब उन्हें ये कौन समझाए?
इतना तकल्लुफ़ अब कौन उठाये!
कि तुम्हारी बची उंगलियां
अभी भी तुम्हारे ही खिलाफ़ है,
तुम्हारी हर नापाक हरकत का जवाब
बस मेरा एक मृदुहास है।

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3 APR AT 1:14

जब दिमाग बिल्कुल सुन्न हो,
थकी आँखे कही गुम हो,
खुद का ही जब ख़ुद में अभाव लगे,
सब कुछ बेहिसाब सा लगे,
अपनी गहरी साँसों को फिर से महसूस करना,
अपने वजूद से तुम दोबारा दोस्ती करना।

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1 APR AT 22:05

कितना भी कर लो, कम सा लगता है।
हर मरहम भी अब ग़म सा खलता है।
मझधार से दूर कहीं कोई किनारा चमकता है।
उम्मीद भरा मांझी फिर अपनी राह बदलता है।

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29 MAR AT 16:10

बातें अपना दायरा धीरे-धीरे बढ़ाती है,
पर जुबां से निकलकर
सीधा दिमाग में चढ़ जाती है।
फिर तो ये मसला बड़ा ही गम्भीर है,
हर एक शब्द लाता
हर्ष या फिर अथाह पीड़ है।

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