धारा-लेखन   (Kumar Santosh 🌹)
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Joined 19 June 2020


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क्यों याद रखूं अफ़सोस के अब दर्दों का किस्सा पुराना हुआ🌹
देकर ज़ख्म' फिर तेरा, एक बार मुड़कर न वापस आना हुआ🌹

के हर पल शमां की बनकर लौ यूं जलते रहे रात भर संतोष🌹
फिर भूलकर इन वीरानियों में, तेरा न मुड़ कर आना हुआ🌹

क्यों याद रखूं अफ़सोस के अब दर्दों का किस्सा पुराना हुआ🌹
देकर ज़ख्म' फिर तेरा, एक बार मुड़कर न वापस आना हुआ🌹

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फूलों की खुशबुओं से इन फिजाओं के रंग बदल जाते थे🌹
छोड़ कर उन मकानों को, पेड़ों की छांव तले सो जाते थे🌹

भूल गया इन्सान वो ज़माना, प्रकृति से प्रेम से अनजाना🌹
कभी सावन की फुहारों में, यारों संग मदहोश हो जाते थे🌹

लूट लिया यूं खज़ाना बहारों का, आजकल के बेगानो ने🌹
के वो दौर था जब झूलों के मेलों में मस्त मग्न हो जाते थे🌹

फूलों की खुशबुओं से इन फिजाओं के रंग बदल जाते थे🌹
छोड़ कर उन मकानों को, पेड़ों की छांव तले सो जाते थे🌹

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यूंँ तो रहती है तन्हाई अक्सर साथ मेरे, फिर भी अकेला हो जाता हूंँ🌹
ख़्वाब और ख़्याल" जब भी आए तेरा, मैं मयखाने चला आता हूंँ🌹

आरज़ू-ए-उम्मीद थी जिसके साथ की मुझे, इन गर्दिश' के लम्हों में🌹
ए हमसफ़र के" मिटाने को दर्द, मैं अकेला जाम पे जाम पी जाता हूंँ🌹

यूंँ तो रहती है तन्हाई अक्सर साथ मेरे, फिर भी अकेला हो जाता हूंँ🌹
ख़्वाब और ख़्याल" जब भी आए तेरा, मैं मयखाने चला आता हूंँ🌹

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वो दौर था पुराना के एक ही दिल" से ये दुनियां चलती थी🌹
घर में रौनक बूढों की, आंँगन' में बच्चों की रेल चलती थी🌹

मिल कर होता था ज़श्न, घर परिवार और गांँव के मेलों में🌹
के फ़िर सावन के झूलों संग, पेड़ों तले महफ़िल चलती थी🌹

इस बदले ज़माने में इंसान से पहले मरती इंसानियत देखी🌹
के होता था एक ही घर, एक ही 'चूल्हे में आग जलती थी🌹

वो दौर था पुराना के एक ही दिल" से ये दुनियां चलती थी🌹
घर में रौनक बूढों की, आंँगन' में बच्चों की रेल चलती थी🌹

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बेबसी


मैं देखती हूंँ तेरी राहों को, तूंँ 'तन्हाई' का किनारा देखना🌹
बेबसी की घड़ी में, पल पल अधूरा ख़्वाब हमारा देखना🌹

इन आंँखों' में अश्क लिए फिरते हो दर बदर अफ़सोस 🌹
के 'जुदाई" में ना हम देखेंगे, ना चेहरा तुम हमारा देखना🌹

मैं देखती हूंँ तेरी राहों को, तूंँ 'तन्हाई' का किनारा देखना🌹
बेबसी की घड़ी में, पल पल अधूरा ख़्वाब हमारा देखना🌹

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दिल नहीं लगता है अब, छुपा कर अश्कों को सो जाते है रात में🌹
उसको "परवाह" है कहां, तन्हाई" के सिवा है ही कौन साथ में🌹

दिल नहीं लगता है अब, छुपा कर अश्कों को सो जाते है रात में🌹
उसको "परवाह" है कहां, तन्हाई" के सिवा है ही कौन साथ में🌹

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के तेरा हुस्न 'क़यामत है जां, पर्दे में रहा करो🌹
यूं नज़र में हैं ज़माने की, चुपके से मिला करो🌹

के अभी वक्त है बाक़ी, मंज़िल तक पहुंचने में🌹
मुझे ज़रूरत" है तेरे साथ" की साथ चला करो🌹

बद "मिजाज़ से हैं लोग यहांँ के, ज़रूरी है के🌹
संँवर' के चलो तो मेरी आगोश में ही रहा करो🌹

के तेरा हुस्न 'क़यामत है जां, पर्दे में रहा करो🌹
यूं नज़र में हैं ज़माने की, चुपके से मिला करो🌹

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के तेरे ग़म में पीता हूंँ तो दुनिया" शराबी" बुलाती है🌹
ये 'ज़िन्दगी भी ना जाने किस-किस ज़द में आती है🌹

अब होश भी नहीं रहा बस मसरूफ़ रहता हूंँ ग़मों" में🌹
हंँसने की गर करूंँ कोशिश तो आंँखे भीग आती है🌹

पल पल तेरी यादों में डूबा रहता हूंँ दिन ओ रात को🌹
सज़ा है बस के सीने में मेरे आग सी सुलग आती है🌹

के तेरे ग़म में पीता हूंँ तो दुनिया" शराबी" बुलाती है🌹
ये 'ज़िन्दगी भी ना जाने किस-किस ज़द में आती है🌹

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के हर रोज निकलते हैं हम अपने "वजूद के लिए🌹
मगर कर सांँसों" पर भरोसा मिट्टी में खो जाते है🌹

ऊपर से क्या ख़ूब क़यामत है लोग ज़माने के🌹
के मरते है तो 'अफ़सोस" जिन्दा है तो रुलाते हैं🌹

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के कहीं सूरज की किरण निकल आए इन अंधेरों के शहर में🌹
नाज़ुक है हालात मेरे, ज़ख़्मी हाल में भटक रहे इधर-उधर में🌹

देखा ना ख़्वाब' फिर से उसका, ना कोई आने की ख़बर हुई🌹
के शमां ने भी कर दिया इनकार जलने में वीरान-ए-घर में🌹

रातों को भी छुप जाती है वो सारी चमक तारों की बादलों में🌹
रफ्ता-रफ्ता मद्धम हो रही है सांँसे ना उम्मीद है अब नज़र में🌹

के कहीं सूरज की किरण निकल आए इन अंधेरों के शहर में🌹
नाज़ुक है हालात मेरे, ज़ख़्मी हाल में भटक रहे इधर-उधर में🌹

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