विकास और पशु
विकासशील देश में पशु भी विकासशील हो पाएंगे?
क्या सुख सुविधा भोगते इंसान के समान
पशु भी सुख सुविधाओं के सहभागी बन पाएंगे??
क्या वे हमेशा जानवर ही रह जायेंगे??
क्या पशु कभी लोकतंत्र का हिस्सा बन पाएंगे,
या राजनीति का सिर्फ किस्सा ही रह जायेंगे??
पशुओं के आवास उजाड़कर, बनते औद्योगिक शहर
क्या कभी उनकी कीमत अदा कर पाएंगे?
औद्योगिक विकास के एवज में इंसानों की तरह
क्या पशु भी मुवावजा पाएंगे??
चारे और आवास की तलाश में शहर जाते,
क्या कभी पशु भी प्रवासी कहलाएंगे??
चमचमाती सड़कों पर दौड़ते वाहन की ठोकर से,
मृत पशुओं की कीमत, सड़क अदा कर पाएंगे?
क्या ये विकसित सड़के भी रक्तपिपासु कहलाएंगे??
विकास के अप्रत्यक्ष सहभागी पशुओं की
क्या कभी गाथा लिखे जायेंगे,
या वो सिर्फ मूक जानवर कहलाएंगे?
क्या वे हमेशा जानवर ही रह जायेंगे??-
हर पन्ने पर एहसास लिखा है,
जो भी लिखा है बेहिसाब लिखा है।
कभी अपने दिल का सवाल लिखा है,
तो कभी तेरी पहेलियों का जवाब लिखा है।।
तेरी सियाही से अपनी किस्सों का
आगाज लिखा है।
तो कभी तेरी सियाही से,
तुझे ही पैग़ाम लिखा है।।
कभी दर्द ए दिल का राग लिखा है,
कभी अपने जख्मों का हिसाब लिखा है।
तो कभी तेरी सियाही से,
दर्द ए दिल का इलाज़ भी लिखा है।,
कुछ बीते यादों का अल्फ़ाज़ लिखा है,
कभी हमदर्द दिलों का साथ लिखा है।
तो तेरी सियाही से,
सुकून दिल का एहसास भी लिखा है।।
कभी कुछ अधूरा ख़्वाब लिखा है,
कभी तेरी सियाही से अपने ख्वाबों को
तेरे ख्वाबों के साथ लिखा है।
तो कभी ख्वाबों के मुकम्मल होने का
इंतजार लिखा है.....-
मुझे इंतजार है उस बारिश का
जो तेरी शबनमी जुल्फ़ों की भीनी महक को,
बूंदों के साथ बहा कर मुझको मदहोश कर दे।
इस बारिश का नहीं ,
जिसकी बूंदों में तेरी ख़ुशबू तलाशता हूं।।
मुझे इंतजार है उस बारिश का
जो तन पर गिरे और रूह तलक भीग जाए।
इस बारिश का नहीं,
जिसकी बूंदे मुझे शूल सी चुभो रही।।-
ज़िन्दगी की उलझनों में जब गुम हो जाते हैं,
तब कोई राह नजर नहीं आती है।
सही गलत रास्तों में फर्क नहीं कर पाते,
तब एक अंजान चौराहे में फस जाते हैं।
और जब उम्मीद की रोशनी नजर आती है,
तभी विचलित होकर कोहरे में समा जाती है।
और फिर से राह भटक जाते हैं ,
रास्ते सारे खो जाते हैं....-
ज़िन्दगी एक रास्ता ही तो है और हम उसके मुसाफिर...
रास्ता सही चुना तो सरल हो जाती है डगर
वरना उलझ कर रह जाती है ज़िन्दगी का सफर।।-
लौट आएंगे एक दिन सब पस्त होकर,
ठीक पंछी की तरह जैसे लौट आती है
घोसलों में शाम होने पर।
लौट आएंगे सब,पतझड़ शहर से
जो वीरान हो गई है,
इस हरित जंगल में।
लौट आएंगे सब वापस वहां
जहां से चला था इंसान,
प्रगतिशील, विकासशील के रास्ते,
नए शहर, कारखाने बनाने,
घोसलें को नष्टकर,जंगल को काटकर।
लौट आएंगे सब और सीखेंगे फिर से,
तिनके से घोसला बनाना, प्रगतिशील होना।।
लौट आएंगे एक दिन सब जंगल की ओर....
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हमारे खत्म होने के बाद भी जीवंत रहेंगे,
ये सखुआ(साल) के फूल, पेड़, ये प्रकृति।
जो पृथ्वी को हमेशा ही, पुनर्जीवित करेंगे,
काल, आपदा, प्रलय, अकाल से.....।।
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काश की बात यहाँ,
सिर्फ तेरे और मेरे इश्क़ की होती।
दरम्यान इश्क के ना मजहब होती,
और ना कोई दीवार होती।
बात सिर्फ तेरे मेरे इश्क़ की होती।।
काश कि तेरे मेरे इश्क़ के किस्से आम ना होते,
किस्सा-ए-इश्क़, महफ़िल-ए-ख़ास में होते
तो ग़लतफ़हमी के शिकार सरेआम न होते।।
काश की बात यहाँ,
सिर्फ तेरे और मेरे इश्क़ की होती।।
ना बात, देह रंग की होती ना सीमा उम्र की होती,
बात प्यार के रंग की होती, वो भी ताउम्र होती।
काश की बात यहाँ,
सिर्फ तेरे और मेरे इश्क की होती।।
बात न हमारी जुदाई की होती,
ना रुसवाई की होती।
बात इश्क़ के हौसलाअफ़जाई की होती।।
काश की बात सिर्फ तेरे मेरे इश्क़ की होती...-
याद है तुम्हें,
जब क़रीने से तेरे जबीं को चूमा था,
मशगूल हो कर फ़ना हो गए थे मेरी बाहों में।।
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अरसों से आँखों ने कुछ बोला नहीं,
सब कुछ देखा, सब कुछ सहा बिल्कुल मौन।
असंख्य भावों को अपने अंदर समेटकर,
भावहीन लबादा ओढ़ा रहा।
भीतर ही भीतर भावों और स्मृतियों का समंदर,
आंसुओं के मणियों में ढलता रहा।
आखिर कब तक ठहरती आँसू,
कठोर हृदयता से तनी हुई सेतु में।
भावों की अनुभूति से हृदय कोमल हो गया,
आखिरकार आंसुओं का सेतु टूट पड़ा।
कब तक चुप रहता,
अंततः एक आंसू बोल पड़ा।।-