देवेंद्र उपाध्याय   (देवेंद्र उपाध्याय)
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Joined 10 January 2018


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Joined 10 January 2018

मां की आंखों में देखा जो दर्द,
दिल कांप उठा, रूह तक सिहर गई।
न बोली कुछ, पर हर ख़ामोशी,
जैसे सौ तीर बनकर जिगर पे उतर गई।

वो मां जो हर ग़म में साथ रही,
आज मेरे गुनाह से ख़फ़ा है।
उसका चुप रहना चीख सा लगा,
जैसे कोई रिश्ता बुझा-बुझा सा है।

पत्नी की नज़रों में भी उलाहना है,
बहन भी अब दूर-दूर सी रहती है।
सबको दुखी कर के क्या पाया मैंने,
बस एक आदत जो अब भस्म बन गई है।

अब नहीं चाहिए वो छलका हुआ जाम,
जिसने मेरे अपनों को मुझसे दूर किया।
अब नहीं चाहिए वो पल की मस्ती,
जिसने मेरी आत्मा को ही चूर किया।

आज कसम खाता हूं मां के सामने,
उस मौन की चोट अब शब्दों से भारी है।
ज़िंदगी की राह अब सीधी रखूंगा,
जिसमें अपनों की मुस्कान ही प्यारी है।

-



अब न सम्मान का सपना है,
न अपमान से डर लगता है।
अब तो जैसे हर लम्हा
बस खालीपन से भरा लगता है।

जिस राह पर चला था मैं,
वो राह भी अब बेगानी है।
हर मोड़ पे ठहरी तन्हाई,
हर मंज़िल वीरानी है।

ना कोई शिकवा बाकी है,
ना अब कोई चाहत शेष।
दिल अब सिर्फ़ धड़कता है,
जैसे कोई अधूरा संदेश।

हर अपना पराया लगने लगा,
हर चुप्पी जैसे सज़ा सी है।
अब तो खुद से भी मिलना,
एक जंग की तरह सा लगता है।

बस चलते जाना है यूँ ही,
बिना मक़सद, बिना मंज़िल।
मैं अब वो राही हूँ,
जिसे हर ठहराव भी ताज्जुब सा लगता है।

-



एक अंग था कभी मेरा, जो अब साया बन गया,
साँसों की भीड़ में चुपचाप, कहीं गुमनाम सा रह गया।
ना धड़कन, ना आहट उसकी, ना कोई जीवन-धारा,
बस रिपोर्ट में दर्ज है वो, एक मूक किनारा।

डॉक्टर ने कहा – "दाईं किडनी नहीं दिख रही",
जैसे किसी ने मेरी आत्मा पर चुप्पी रख दी।
बाईं ने कहा – "मैं हूं ना, तू आराम कर",
पर जाने क्यों हर दिन मन में उठता है डर।

ये कैसा जीवन है, जिसमें आधा ही संग है,
जिस्म तो पूरा है पर जीने में न कोई उमंग है।
हर इंजेक्शन की चुभन, हर रिपोर्ट की सजा,
कभी खुद से सवाल – "क्या मेरी भी है कोई दवा?"

भीतर जो सूजन है, वो सिर्फ एक तस्वीर नहीं,
वो मेरे जज़्बातों की आवाज़ है, जो कभी रोई नहीं।
माँ की दुआओं में, एक अधूरी सी दास्तां
हर रात सिसकती है चुपचाप सपना बनके।

शरीर का हर कोना जिंदा है, पर एक हिस्सा सो गया,
जैसे उम्मीदों का कोई टुकड़ा अचानक खो गया।
अब दुआ बस इतनी है जो बचा है, वो सलामत रहे,
दर्द की इस समंदर में जीवन की एक लौ मिलती रहे।

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शरीर थक चुका है, साँसें भी भारी हैं,
फिर भी उम्मीदों की लौ अब भी जारी है।
हड्डियाँ कराहती हैं, नसें जवाब दे रही हैं,
पर आत्मा अब भी जीवन से प्यार कर रही है।

चलना कठिन है, मगर रुकना मंज़ूर नहीं,
दर्द की दीवारें हों, तो भी हम दूर नहीं।
हर सुबह एक चुनौती, हर रात एक सवाल,
फिर भी दिल कहता है "मत हो मायूस मेरे लाल!"

न हिम्मत ने छोड़ा, न विश्वास हारा है,
ये जज़्बा ही है जो मेरा सहारा है"
शरीर साथ न दे, तो क्या हुआ,
मन की मशाल तो अब भी जल रही है।
जीवन की डोर अभी टूटी नहीं,
संघर्ष की कश्ती अब भी चल रही है।

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कभी अकेले में पढ़ो,
तो लगेगा जैसे मैं पास बैठा हूँ,
कभी मुस्कान दे, कभी रुला दे,
मेरे होने का एहसास करवा दे।

जो मैं कह न सका,
वो सब इन पंक्तियों ने कहा,
जो मैं जी न सका,
उसे इन लफ़्ज़ों ने जिया।
मैं चला जाऊँगा एक दिन,
पर मेरी कविताएं रहेंगी सदा...
“मैं नहीं रहूँगा तो क्या…
मेरी कविताएं ज़िंदा रहेंगी।”

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पैसे वाला बोले "आज मीटिंग है चार,
"कार लानी है नई, और करना है व्यापार।"
कैलेंडर में नोट है तो हर सौदा, हर बात,
पर बस्ती के मोहन का ऐसी कहां औकात।

कितनी अजीब बात है ये दुनिया की चाल,
धन वालों की हर तारीख होती है कमाल..
पर एक और बेटे का जो खास दिन था,
उसे न कोई याद करे वो कहीं गुमनाम था।

न बँधते गुब्बारे कहीं, न सजे केक की थाली,
बस एक मुस्कान थी, और आँखों में थी लाली।
जन्मदिन उसका भी उतना ही अनमोल था,
पर उसे कोई मनाए कैसे,पैसों का जो बोल था।
काश तारीखें दिल में बसतीं, जेब में नहीं,
तो गरीब की भी खुशियाँ होतीं कहीं।

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दूरियां बढ़ रही हैं, हम परिवारों के दरमियान
इन फासलों को चल कर मिटाना मुमकिन नहीं
कीड़े लगे हैं पूरे वृक्ष के तने, पत्ते और पेड़ों पर
तो हरियाली की बातें भी सच नहीं लगतीं..

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मेरी मूत निकल रही है, मेरी जान निकल रही है
भारत के सेना ऐसा ना करो, हमारी GF रही है..
हमने जो भी किया, वो हमारी गलती थी..
अब ऑपरेशन सिंदूर से पिछवाड़े से पॉटी निकल रही है....

इंडियंस आर्मी हमें माफ करिए....

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दरिंदो की ये बस्ती है, यहां ईमान बड़ी है सस्ती है
प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते, यह कौड़ियों के भाव बिकती है..


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वर्षा की बूँदों सा मधुर है तुम्हारा साथ,
समीर की साँसों में बसी वो हर बात..
सात फेरों से शुरू हुई थी जो कहानी
देखो बन गई जीवन की सबसे प्यारी रवानी..

HAPPY WEDDING ANNIVERSARY ❣️

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