घड़ी की आवाज़ भी,दरवाज़े की दस्तक लगती है।
जब की मुहल्ले में हर रोज बाजार लगती है।
मैं चाय का कप लेकर बैठता हूँ जब।
सोचता हूं ये कैसे घेरे है जिनमें तन्हाई लगती है?
मैं बस्ते का सारा बोझ सिर्फ़ एक कंधे डाल देता हूँ जब।
मुझे हर बच्चे की जिंदगी बहुत रा'नाई लगती है।
हर रोज़ लौटकर काम से,क्लैंडर् पर तारीख काटकर।
सोचता हूँ ताले में चाभी एक बार में क्यों नहीं लगती है।
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