Deepankar Sharma   (अबोध)
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Student
Joined 3 November 2019


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12 JAN 2023 AT 16:21

ए हुन ए इश्क ए नजनीनो
हमसे हमारी तन्हाई ना छीनो
यही है हमारी दौलत वसीहत जाओ कोई
और दिल टटोलो कही और जाल फेंको।

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24 JAN 2022 AT 23:48

तुम ठहरे हुस्न वाले जिधर चाहे आशिक हजार प्यार बेशुमार मिल जायेगा
हम तो दिल वाले है तेरे सिवा कोई भाए ऐसा होने में अरसा बीत जायेगा

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24 JAN 2022 AT 22:46

यही ख्याल था बिछड़ते वक्त की
मिले थे तो ये ख्याल क्यों नहीं आया
साया भी जुदा होता है बदन से
ये सवाल क्यों नहीं आया
राते जो तेरे साथ जागे
वो अधेरा जिंदगी में होगा
मिलन का आखरी लम्हा ऐसा
जैसे कोई कस्ती कागज की डूब रही हो
निगल रहा हो घर जाने वाली सड़क को कोहरा
आंख में आंसू ना थे
जैसे समंदर हो किनारे पर ठहरा
उम्मीद रह जाती अगर तुम जुदा ही हुए होते
मर गई वो भी क्योंकि तुम विदा हुए थे



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29 MAR 2020 AT 12:08

खूबसूरत देंन है खुदा की ये ज़िन्दगी
भुला कर रंज ऐ गम कर ले थोड़ी बंदगी
सादगी से जीत ले अपनी तू जहाँ
बनके तू भागीरथी मिटा सारी गंदगी

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27 MAR 2020 AT 13:08

नादाँ है दिल नादानी इसकी आदत है
ये प्यास है इसे इश्क की ज़रूरत है
खामियां होती है सब में कुछ न कुछ
इसे अपना बनाने की बुरी आदत है

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9 JAN 2022 AT 0:48

पहाड़ों की कोई शाम हो
तुमने मेरे पसंद की साड़ी पहनी हो
उबाल आ रहा हो मेरी चाय में
तुम्हारे हाथ की मैग्गी हो

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8 JAN 2022 AT 22:40

जनवरी में जुलाई सी बारिश
इरादा शहर ए महबूब का अच्छा नहीं लगता

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3 JAN 2022 AT 19:28

तेरे मन की सरगम पर नर्तन करता है चित मेरा
तेरी रूप चांदनी की शीतलता में भीगा सदा हि मन मेरा
जान नहीं पाता जलने से पहले जैसे कोई पतंगा दीपक की मनभावन अग्नि को
वैसे ही मन मेरा बालक रह जाता हर बार तुम्हारे भावों से अनभिज्ञ
सूर्य रश्मियां करती सिंगार तुम्हारा
चंदन की सुगंध करती गेसुओं में वास
देता बसंत तुमको यौवन
कस्तूरी माथे में रख मेरा मन मृग खोज रहा था
बाहर जग में
था एकाकी मैं मेरा मन किसी शोर करती नदी जैसा
तुम किसी महफिल का शोर मन से किसी पर्वत सी शांत
मैंने खोजा जग सारा खुद में कस्तूरी को पाया
मैंने खोजा प्रेम जगत में पाया जग का प्रेम तुम्ही में पाया
पाया शक्ति ने खुद में शिव को और शिव ने शक्ति को
पाया कनुप्रिया ने कृष्ण को मीरा ने पाया अपने इष्ट को
मेरा मन पाए प्रेम तुम्हारा ............
पाए राम के जिस भाती साबरी ने दर्श



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19 NOV 2021 AT 16:39

रोई अगर कोई स्त्री तो मिला सहारा कंधे का
कभी भाई बाप पति दोस्त मां किसी ना किसी का
पर रोया जो कदाचित कभी कोई पुरुष
तो मिला ताना कभी मां-बाप समाज जमाने का
होकर आदमी लाते हो आंखों में आंसू क्यों
तुम्हें रोना नहीं चाहिए तुम पुरुष हो.।
ऐसा होने लगा प्रतीत जैसे छीन लिया गया हो
बचपन के पश्चात रोने का अधिकार पुरुषों से
दर्द पर अधिकार नहीं क्या हमारा?
या हम वेदना से अछूते रहते हैं?
स्त्रियां भी कम बलिदानी नहीं माना
पर पुरुष भी सर्वस्व अर्पण करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं
बाप बन कर समूचे परिवार का भार
भाई बनकर परिवार का संबल
बेटा बनकर परिवार का रक्षक
पति बनकर अस्तित्व की रक्षा का प्रण
क्या-क्या नहीं करता पुरुष
फिर भी रो नहीं सकता
ऐसा क्यों नहीं कर सकता पुरुष
तुम लड़के हो तुम सब कुछ कर सकते हो
तुम अपनी किस्मत अपने हाथों में लिख सकते हो
जमाने भर की निगाहें और जमाना खुद भी
हमें बताता आया
पुरुष जगत में सिर्फ सदा लड़ने आया.........

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18 NOV 2021 AT 15:43

हर दौर में एक दौर में बदलता है दौर मोहब्बत में
एक दौर था बदल दी जाती थी रस्में रिवाज मोहब्बत में
एक दौर यह है मोहब्बत का
सिर्फ चादरें में बदल दी जाती है मोहब्बत में
ना जाने कब किसका इश्क बदल जाए किसके लिए
और सही भी तो है
किसी को रोके भी तो कैसे
पाबंदियां और बंदिशे कहा होती है मोहब्बत में

रिवाज ए इश्क में बस इतना सा रिवाज है
वफा से ज्यादा जफा असरदार है
अनगिनत किस्सों में कोई एक कहानी मुकम्मल इश्क की है
सच्चे तो जोगी बन बैठे
झूठे सरदार हैं
बदनामी से दामन ढकता
इश्क कैसा बेशर्म यार है
रंग सफेद है यार इश्क का
फिर भी कितना दागदार है
कभी जात में कभी कौम में
तोड़ा गया यह बीच राह में
ऐसा बुरा हुआ है हश्र इसका
कैसा नशा है इश्क में कैसा खुमार है मोहब्बत में
जो चड़ बैठा है सब की आदत में.................


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