हक़ीक़त
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हम दिखावे को सच मान बैठे,
वो सच को दिखावा मान बैठे।
संबंधों में खुशियां थी ही नहीं,
हम खोखलेपन को खुशियां मान बैठे।
वो अदाकारा थी बेहतरीन,
हम अदाकारी को मोहब्बत मान बैठे।
रिश्तों पर वफ़ा का लेप लगाया गया था खूबसूरती से,
हम उनकी दिल्लगी को वफादारी मान बैठे।
खुद को सौंप कर हम उन्हें जिंदगी मान बैठे।
चंद गलतफहमियों को हम हक़ीक़त मान बैठे।
वक्त निकलता गया यूंही ग़फ़लतों में
हम साहिल को मंजिल मान बैठे।
दीपक कुमार
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इंस्टाग्राम @deepakkmr467
लौट कर चेहरे की चमक वापस भी आएगी,
किस्मत फिर से दरवाजा हमारा भी खट-खटाएगी।
एक न एक दिन संघर्षों से टकराकर, सफलता हाथ आएगी।
बुलंदिया कदम चूमेंगी, मुस्कुराहट ललाट पर नज़र आएगी।
दीपक कुमार
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आलतू-फालतू लोगों के बीच हम बैठा नहीं करते,
समंदर कभी नालों के पास से गुजरा नहीं करते।
हम आफताब है,अपनी रोशनी से ही हैं रोशन।
महताब की तरह किसी के रहम-ओ-करम पर नहीं जीते।
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भट्ठे वाली औरत
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ईंट के भट्ठे पर काम करने वाली स्त्री,
लड़ रही थी भूख से,
कई दिनों तक,
पहले उसने बेचे चांदी के जेवर,
फिर बेचे झोंपड़ी के साजो-समान,
इन सब के बाद भी,
जब बच्चों की भूख नहीं मिटी,
तो बेचनी पड़ी उसे अपनी इज्ज़त।
एकाएक उसकी तबीयत बिगड़ने लगी,
भट्ठी की औरतें ले गई उसे ओझा के पास
इस उम्मीद में कि वो ठीक हो जाए।
ओझा अग्नि कुंड से आग निकाल-निकाल कर,
जला रहा था उसकी देह,
पढ़ रहा था न समझ आने वाले मंत्र,
आवाहन कर रहा था अज्ञात देवी का,
पीड़ा पहुंचा रहा था साक्षात् देवी को,
यह कहते हुए कि-
"तुम्हारे किसी रिश्तेदार ने जादू टोना किया है इस पर,"
सब लोग ताकते रहे, एक दूसरे की ओर झांकते रहे।
पाखंडी ओझा अपने कर्म कांड में लगा रहा,
किंतु, अज्ञात देवी नहीं हुई प्रकट,
निरंतर कष्टदायक क्रिया में
निकल गए प्राण साक्षात् देवी के,
उसे बेहोश समझ कर ले जाया गया सदर अस्पताल,
जहां पोस्टमार्टम में निकला,
भूख और शारीरिक प्रताड़ना से
चली गई है इनकी जान..
दीपक कुमार-
प्रणय-निवेदन
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प्रेम पाश में बंध कर
प्रणय निवेदन लेकर आया हूँ प्रिय,
अपनाना हो तो अपना लेना,
ठुकराना हो ठुकरा देना,
जैसा तुम को अच्छा लगे प्रिय ।
मिल जायेंगे बहुत,
आसमान को ज़मीन पर लाने वाले,
धरती से चाँद पर पहुँचाने वाले,
तारे-सितारे तोड़ कर लाने वाले,
शशि, निशा को गुलाम बनाने वाले।
मैं तो साधारण सा मानव हूँ,
मुझ से यह चमत्कार न हो पायेगा।
प्रेम किया है, व्यापार नहीं,
मुझ से जुमलों का पहाड़ खड़ा न हो पायेगा।
इस पर भी अपनाना चाहो तो अपना लेना..
यह केवल निवेदन भर नहीं है प्रिय,
समक्ष तुम्हारे, हृदय खोलकर रख दूँगा।
एक-एक पल खुशियों से भर जाएगा,
ग़म का बादल छट जाएगा,
मैं जीवन इंद्रधनुष सा सतरंगी कर दूँगा।
प्रेम भरा प्रस्ताव हमारा,
अब तो स्वीकार करो।
घृणा में क्या रखा है ,
करना है तो प्यार करो।
दीपक कुमार-
सूखी स्याही
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मेरे आंख के आंसू सुख गए है,
वैसे ही जैसे सूख जाती है कलम की स्याही,
मैं रोना तो चाहता हूं लेकिन रो नहीं पाता,
ठीक कलम की सूखी स्याही की तरह,
मैं भावों के वेगों को नियंत्रित कर
देना चाहता हूं दिशा किंतु वह अनियंत्रित हो जाती है,
नवशिक्षुक की टेढ़ी मेढ़ी लेखनी की तरह।
कई वर्षों के संघर्ष के बाद,
नदिया भी ऐसे ही सूख जाती होंगी
जैसे मनुष्य के मन के भाव,
तनाव, पीड़ा और समस्याओं से लड़ते-लड़ते,
सूख जाते हैं एक दिन, ख़ुद ब खुद।
कुछ लिखना, कुछ पढ़ना, कुछ गढ़ना,
भूल जाते हैं एक दिन स्वत:
जैसे मानसिक विक्षिप्त प्राणी भूल जाता है,
जीवन के सफर में सफ़ेद, स्याह में फर्क करना।
© दीपक कुमार-
अंजन
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चेहरे की रंगत खूब दिखे है।
खंजन में अंजन खूब लगे है।
दो भौंहों के बीच की बिंदी खूब जचें है।
जुल्फों के बादल में चंद्रमुख दिखे है।
नासिका पर नथुनी खूब फबे है।
अधरों की लाली से ललाट दमके है।
जब वो सोलह श्रृंगार करे है,
सारी फ़िज़ाएं महकने लगे हैं।
सखी, साजन का सजना खूब लगे है।
प्रेम में जिन्दगी खूबसूरत लगने लगे है।
दीपक कुमार
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लौट आऊंगा मैं
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लौट आऊंगा मैं,
एक दिन फिर से उसी शहर में,
जहां आंखे खोली थी मैंने,
जहां गिरते-गिरते दौड़ना सीखा था मैंने,
जहां हर्फ़ से रु ब रु हुआ था पहली बार।
मुझे विश्वास है कि लौट आऊंगा एक दिन,
उन्हीं गलियों में जहां उम्र का एक पड़ाव बीता,
चक्कर लगाऊंगा उन्हीं सड़कों पर,
जहां से की थी शुरुआत,
मैंने अपने जीवन यात्रा की।
निहारूंगा घंटों उसी मैदान को,
जहां खेलते हुए बीता बचपन मेरा,
देखूंगा अक्ष अपना फिर से उसी तलाब में,
जो साक्षी रहा था,
मेरे अकेलेपन और संघर्ष का,
यकीनन, एक दिन लौट आऊंगा मैं,
उसी तरह जैसे पक्षी,
आसमान में विचरण करके लौट आते है,
अपनी डाली पर।
दीपक कुमार-