Deepak Kanoujia   (दीपक कनौजिया...प्राधुनिक)
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Joined 19 January 2019


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7 MAY AT 0:01

पहाड़ों सी संगत है उसकी
जब भी मिलो
पिछली दफ़ा से बढ़ी हुई मालूम होती है,
मिल कर बिछुड़ो
तो भी पहाड़ों सी आँखों में बस
संग चली आती है...

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17 APR AT 23:02

तू हिटलर की ईज़ाद की गयी
जानलेवा तकनीकों में से
कोई एक तकनीक जान पड़ता है...

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12 APR AT 21:35

सबै मुख तुमरे 
सबै शरीर तुमरे
सबै काज तुमरे
सबै जगह तुमरी…

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9 APR AT 23:37

यह घिबली में सबकी आँखें बड़ी बड़ी हो जाती हैं
उसकी छोटी आँखें भी,
फैल कर दूधिया रौशनी फैला देती हैं
किसी स्टेडियम की बड़ी बड़ी लाइटों की तरह...

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23 MAR AT 0:26

अनंत ब्रह्माण्ड सा है
ये खुद का मन मेरा
मैं स्वयं की आँखों से देखूं
तो जानूं इस मन को
क्या व्यर्थ झांकती फिरूं दूसरों के चेहरों में,
मैं खुद ही शेर सी
कहाँ समय पशुता ढूंढने का
दूसरों के जिस्मों में....

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14 MAR AT 23:05

एक विशाल लंगूर शक्ति का जैसे खुले-आम उद्घोष कर रहा हो...घोषणा कर रहा हो एक-छत्र राज्य की...लंगूर इतना विशालकाय कि 100 योजन तक उसकी आवाज जा रही है...वानर के मुख से गर्जना हो रही है जैसे नरसिंह भगवान की…— % &भैरव चीत्कार कर रहे हैं "रक्तिम बलि चढ़ाओ", भैरव महा भयंकर गर्जनाओं से वातवरण को और भयंकर कर रहे हैं, एक एक हुंकार से आकाश जैसे फटने को है...— % &

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26 FEB AT 0:07

रुद्र (शिव) और रुद्रावतार (हनुमान)
दोनों कुछ अपने पास नहीं रखते
कर्म कर फल सौंपते जाते हैं
आगे की ओर...

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18 FEB AT 21:41

जब जब मैं सुनता हूँ उन्हें
तो मन चला जाता है
खुदा के सज़दे में...
बस बोलते रहें वो
और कान मेरे
पहुंचा कर उनकी आवाज़
मेरे दिल में
शख्शियत मेरी पाक करते रहें,
जो सब नापाक है
बह कर निकल जाए
बन आँसूं मेरी आँखों से...

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14 FEB AT 19:11

अच्छा हुआ उस दिन
जो तेरे होंठो का न चूमा मैंने
नहीं तो शायद और प्यास बढ़ जाती मेरी,
हाँ मगर तेरी सुराही सी गर्दन
छू गयी थी मेरे लबों से
तब से माटी का घड़ा बना घूमता हूँ मैं
शीतल शांत प्रशांत
सभी तरह की पिपासाओं से दूर…

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14 FEB AT 13:37

ये मिलना तुम्हारा
लगाना गले तुम्हारा
जैसे मरहम है,
ये बाहें तुम्हारी
लिपटी गले में
ये करम तुम्हारा
तुम्हारा अरहम है...

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