Deepak Chaudhry   (दीपक चौधरी)
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खुद को खोज रहा, हूं कौन, उद्देश्य क्या।
Joined 2 October 2018


खुद को खोज रहा, हूं कौन, उद्देश्य क्या।
Joined 2 October 2018
27 JAN AT 17:56

हाल-ए-वतन क्या है जरा मुझे बताओ
आजकल मैं किताब में हूं।
वातावरण में चिड़ियों की चहक है
या कि फिजाओं में फूलों की महक है
अक्षर से बने शब्द, शब्द से वाक्य
आजकल मैं इसी योग और घटाव में हूं।
चाॅंद को निहारता है चकोर
कि प्रेमिका के प्रेम में नाचता है मोर
स्याही काग़ज़ पर पड़ी है, अगला पृष्ठ है सादा
आजकल इसी बहाव में हूं ।

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13 JAN AT 18:23

तेरी हंसी याद आते ही
एक छवि ऑंखों में तैर जाती है।
तेरा वो खुल के बातें करना,
तेरा वो अपनी बातों को मनाना।
मेरी ख़ामोशी याद आते ही
एक छवि ऑंखों में तैर जाती है।
तेरी वो सीढ़ीयों पे उतरते हुए पांव,
मेरे दिल की दोपहरी को मिलते हुए छांव।
सांसों की मदहोशी याद आते ही
एक छवि ऑंखों में तैर जाती है।

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24 DEC 2024 AT 15:03

मृत्यु का समाचार पाकर
दृष्टिगोचर होती है कि समय गया
परन्तु आसक्ति नहीं टूटती।
तृण मात्र भी आसक्ति ले डूबती है
गह्वर में जहां से निकलना
मुश्किल जान पड़ता है।
छटपटाता हूं पुकारता हूं जगन्माता को
बाहर निकल जाने पर
ठोकर लगती है कि समय गया
परन्तु आसक्ति नहीं टूटती।

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4 DEC 2024 AT 18:14

होना भाग्य है या न होना भाग्य है
किसी जगमगाते क्षण में
मानस-पटल पर उभरता है -
होना भी भाग्य है और न होना भी भाग्य ।
मुझे कहां होना चाहिए
इसका निर्णय कौन करेगा?
मैं जिसे लगता है कि यह भी सही वह भी सही
या वह जो रचनाकार है।
कह दूं कि रचना ग़लत है
तो रचनाकार पर आक्षेप होगा।
कहूं कि रचनाकार ग़लत है
तो फिर रचना का अस्तित्व ही क्या?
इसी उधेड़बुन में बीत रही है ज़िन्दगी।

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26 NOV 2024 AT 12:57

मैं एक बंद डब्बे में कैद हूं
जिसमें गाहे-बगाहे खुलते हैं झरोखे ।
मुझे सांस लेने की आजादी है
परन्तु मैं उस झरोखे के सहारे
बाहर नहीं निकल सकता
क्योंकि पॉंव अदृश्य ज़ंजीरों से हैं बंधे ।
जब कोई झरोखा खुलता है
तब कुछ क्षण के लिए
जगमगा उठते हैं मेरी कल्पना यथार्थ सरीखे
और फिर छा जाता है घनघोर अंधेरा।
तकलीफ़ यह है कि बाहर के बंद डब्बे से
प्रतिबिम्बित होकर भीतर भी
निर्माण हो गया बंद डब्बा ।
अब झरोखा खुलेगा भी तो उसे देखना है मुश्किल
सब तरफ के रास्ते हैं बंद
कई ख्याल बुलबुलों की भॉंति
इस गह्वर में डूब उतरा रहे हैं ।

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28 SEP 2024 AT 11:20

गाने का मन उछल-उछल कर सामने आता है
पर गीत नहीं मेरे पास।
सदियां लगी बनाने में उसको , वो चुप है
और सभी कह रहे हैं मेरा है खास ।

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18 AUG 2024 AT 11:26

ये कौन-सी भंवर है जिसमें
न चिल्लाऊं तो डूबता जा रहा हूं
पुकारूं अगर तो लोग डूबा देते हैं।

ज़िन्दगी कैसे कैसे आयाम से गुजारती है
एक तरफ सन्नाटे हैं एक तरफ छाया पुकारती है
ये कौन-सी निराशा जगी है दिल में
न चिल्लाऊं तो घिर रहा हूं
पुकारूं अगर तो लोग हवा देते हैं।

जगन्माता की कृपा से चल रहा हूं
थोड़ी-सी किरण से अंधेरे को मल रहा हूं
नवजागरण का अंकुर फूटेगा हृदय में
इसी उम्मीद से मुस्कुराता जा रहा हूं
ऋषिगण भी दुआ देते हैं।


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16 AUG 2024 AT 14:22

कहते हैं कुछ दीवाने ,
अपने मन की सुनो।
ग़म की बरसात हो रही है
उलझे विचारों की ऑंधियां हैं
ऐसे में कह रहे हैं परवाने
अपने मन की सुनो।
दौड़कर एक घाट से
दूजे घाट पर जाता हूं
कहीं नाव तो कहीं पतवार को पाता हूं
भंवर ही भंवर है चारों तरफ यहां
ऐसे में कह रहे हैं मस्ताने
अपने मन की सुनो।

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13 AUG 2024 AT 14:00

सफर में सभी है

ज़िन्दगी देखो चली जा रही है
धीरे-धीरे मौत करीब आ रही है
अभी कल तक हम नादान थे
अब बड़े होने की अनुभूति चली आ रही है
हम फंसे हैं कौन से भंवर में कैसे जानेंगे
नई नई विपदाएं हमको डरा रही है
अंधेरों के बीच बिजली-सी कौंधी है
कोई तो है उस घाट पर जो मुझको बुला रही है

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12 AUG 2024 AT 15:02

कुछ पौधे जो डाले गए खेतों में,
और दी गई खाद उसमें
उसे मिला धूप, पानी, मिट्टी
तो लहलहा उठे कुछ दिनों में,
वहीं उनके साथ के कुछ पौधे
जो रह गए थे मेड़ों पर
मिट गई उसकी निशानी
उन्हीं दिनों में ।

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