कुछ देती हैं माँ अम्बे शक्ति, कुछ चाय का सहारा लेता हूँ
नौ दिन तेरी भक्ति में माँ मैं कुछ यूँ उपवास में रहता हूँ-
वादों में तो कभी उनके इरादों में हम आये गए
हर पैमाने पर उनके हम आज़माये गए
चल के बात जब आ रुकी निभाने पर
उसी एक मोड़ पर बस हम फिर ठुकराए गए
तसल्ली इससे भी कहाँ थी उनको मयस्सर
इल्ज़ाम सबब ए जुदाई के भी हम पर लगाये गए-
सूख जाए मिरी आंखों से अब ये आब-ए-चश्म..!
के उसकी यादों के सब शजर अब हरे हो चुके..!!-
आम-ओ-खास नहीं, है मगर यक़ीनन कुछ तो बात मुझमें..!
दुश्मन के नहीं खयालों में मैं, अपनों के मगर निशाने में हूँ..!!-
होती ना मुफ़लिसी तो इस तरह हम ज़िन्दगी बसर करते
दूध, चीनी, पत्ती होती और चाय से अपनी हम सहर करते-
हुई ना गर चाय मयस्सर उस जहाँ में मुझको तो
जन्नत भी नज़र आएगी मुझको दोज़ख के मानिंद-
ज़रा लहज़े में तो ज़रा अल्फ़ाज़ में मिला के
ज़हर अबके पिलाया गया आवाज़ में मिला के-
कुछ हुनर कुछ काबिलियत ज़रा मेहनत अपनी फ़ितरत में लाए हम..!
किस्मत पे ना किया ऐतबार,खुद अपनी चाय बना कर लाए हम..!!— % &-
बिना हाथ में दिए चाय ना पूछो मुझसे हाल मेरा
मामूली है मगर लग रहा है मुश्किल बहोत ये सवाल तेरा— % &-
ज़रा अश्कों को छुपा लूँ, मैं अपने ज़ब्त को आज़माऊँ भी
मैं उनके निक़ाह में जाऊँ भी और भर पेट खा कर आऊँ भी— % &-