मैं तो दिल में खुद्दारी का समंदर लिए फिरता था,
अब तेरी संजीदगी ने मुझे नाचीज़ बना रखा है!
मैं बीमार नहीं और ना ही मुझे किसी मर्ज़ ने पकड़ा है,
मेरा हाल पूछने की तेरी आदत ने मुझे मरीज़ बना रखा है!
तेरी मोहब्बत का साया है कि मेरे सर से जाने का नाम नही लेता,
आ मेरे बाजुओं में बाँध दे जो तिलिस्मि ताबीज़ बना रखा है!
जब भी गुज़रता हूँ तेरी गलिओं से, ना चाह कर भी सज़दा होता है,
हां मैं काफिर हूँ जो तेरे घर को मस्जिद की दहलीज़ बना रखा है!
लोगों के होते होंगे,रब,खुदा,पीर और ओलिया,
कोई मेरी पूछे तो कहना कि तुझे ही हर चीज़ बना रखा है।
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किसी दूर के इलाके से वहकर कोई ज़हरी हवा आई है,
सुना है इश्क के मुकाबले की यहां कोई बला आई है,
कुछ अमीरज़ादे उड़ा लाए हैं जहाज़ों में अपने साथ,
अब गरीबों में बंटने को तैयार ये मौत की सज़ा आई है!
अपनों को गले लगाने से भी यह बला लग जाती है,
हकीमों से पूछो तो कहते हैं,ना कोई दवा आई है,
मैंने मज़ार की चौखट का पत्थर खून से सना देखा है,
माथा पटक कर किसी बीमार की माँ करने दुआ आई है!
ये शहर में थी, गांव की गलियों में इसका नामोंनिशां ना था,
अब वहां से चल कर गांव के घर करने तवाह आई है,
दो वक्त की रोटी के मोहताज़,लाचार इस से कैसे निपटेंगे,
अखबार तो कहते है ये विश्वशक्तिओं को करके फ़ना आई है!
वो मासूमों का कत्ल वो बेजुबानों की हत्या,
कर्मगति पलटी है और हमारे हिस्से में बद्दुआ आई है,
बड़ा तरक्कीपसंद हो गया था इंसान इक अरसे से,
सिरफिरों को सबक सिखाने कुदरत बन ज़लज़ला आई है।-
जब भी मेरा ज़िक्र आएगा तू महफ़िल छोड़ कर रोएगा!
मेरा कन्धा ज़रूर ढूंढेगा चाहे मुंह मोड़ कर रोएगा!
मेरे सामने चाहे मेरी तस्वीर फाड़ देगा हज़ार टुकडों में!
वादा है मेरे जाने के बाद हर टुकड़ा जोड़ कर रोयेगा।
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फर्ज़ का दामन छोड़ इंसान दिल के हाथों लुटने पे आ गया!
आज सरेबाज़ार इंसानियत का जनाज़ा उठने पे आ गया!
बेसहारा बूढ़े को उठाने भरे बाजार में कोई न झुका,
गोरी का झुमका क्या गिरा, सारा बाज़ार घुटने पे आ गया।-
मैं पल दो पल का मेहमान हूँ जो घर से निकला तो मुड़ना मुश्किल होगा!
मैं परिंदा इक नादान हूँ जो तुझ से बिछड़ा तो उड़ना मुश्किल होगा!
मुझे बाकी सब मंज़ूर है पर कभी जिन्दगी में मुझसे बेवफा ना होना!
मैं शीशे का इक मकान हूँ,कभी टूट के बिखरा तो जुड़ना मुश्किल होगा।-
लाख तबाह हो कर भी मुझे खुद की तबाही नहीं दिखती,
तेरी मोहब्बत ऐसी मर्ज़ है शायद जिसकी दवाई नहीं बिकती,
तुझसे नज़रें मिलाने से पहले काश मैं तैराकी सीख के जाता,
तेरी आँखें तो वो समंदर हैं कि मुझे जिनकी गहराई नहीं दिखती।-
मेरी चाहत में कमी है,या तुझे डर है ज़माने का
शायद ये बजह है कि मेरे हाथ पे तेरे हाथ नहीं बैठते,
इश्क़ से इस कद्र परहेज है मेरे शहर के बाशिंदों को,
कि दो परिंदे भी किसी पेड़ पर एक साथ नहीं बैठते!
मैंने जब से होश संभाला है,बुरे वक्त में सब का सहारा रहा हूँ मैं,
आज आलम है कि मेरे अपने भी बेवजह मेरे पास नहीं बैठते,
अगर तू भी वादा-शिकन निकला तो खुदा जाने मेरा क्या होगा,
मेरे दिल के समंदर में, शांत ये सवालात नहीं बैठते!
शायरों का क्या है,पैदा होते हैं, लिखते हैं, गुज़र जाते हैं,
ये वो शख्स हैं जिनके सीने में खामोश जज़्बात नहीं बैठते,
तू कहे तो आसमां को कागज़ कर के इश्क़-ए-इवारत लिख दूं,
वो क्या है कि मेरी डायरी में इतने कागज़ात नहीं बैठते!
तेरा चेहरा वयां करता है मेरी मोहब्बत का असर कितना है,
फिर ना जाने क्यूं, सही हमारे ताल्लुकात नहीं बैठते,
रिश्ता निभाना हो तो हमारे अगले जन्म का इंतज़ार ना करना,
हम तो वो मेहमां हैं जो एक महफ़िल तक में दो रात नहीं बैठते।-
ठहर से गए हैं हम तेरे दर पे आकर
जैसे कोई बेघर रुक जाए अपने घर पे आकर
रब भी नाराज़ लगता है मेरे किरदार से शायद
अरसे से बादल बरस रहें हैं मेरे शहर पे आकर।-
मिलने का वादा करके भूल गए तुम, बता किसको तुझपे एतबार आए,
तू याद बन कर गुज़रे मेरे ज़हन से जब, मेरी रूह तक को बुख़ार आए,
मैं तो मरीज़-ए-इश्क़ ठहरा, मुझे इन हकीमों की भला क्या ज़रूरत,
कि कोई तुझे मुझसे गले मिला दे, तो मेरी तबियत में कुछ सुधार आए।-
चले आते हैं काफिर यहाँ, खुद को फ़ना करने को
हथियारों से दुश्मनी के किस्से वयां करने को,
कुछ तो बात जरुर है मेरे वतन की मिटटी में जनाब ,
सरहदें लाँघ कर आते हैं दुश्मन यहाँ मरने को।
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