Deep Sharma   (©प्रदीप कुमार✍️)
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Joined 1 January 2018


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28 AUG AT 22:17

"घुँघरू जब चुप होते हैं"

महफ़िल जब उजड़ती है,
और आख़री मेहमान अपनी तहज़ीब चौखट पर छोड़ जाता है,
तब कमरे में...
इत्र और शराब की महक के साथ,
एक बहुत गहरी ख़ामोशी ठहर जाती है।

तब वो...
अपने पाँव से घुँघरू नहीं,
एक-एक कर के दिन भर की सारी बेड़ियाँ उतारती है।
हारमोनियम की ठंडी पड़ चुकी साँसों पे,
उसके आँसुओं की गर्द जमने लगती है।

आईने के सामने बैठ कर,
जब वो चेहरे से मुस्कुराहट पोंछती है,
तो नीचे से एक बहुत थका हुआ... गुमसुम सा चेहरा निकलता है,
जिसे वो ख़ुद भी ठीक से नहीं पहचानती।

उसका जिस्म तो कोठा है,
जहाँ हर शाम बाज़ार लगता है,
पर उसकी रूह...
उस कोठे के पिछवाड़े का वो छोटा-सा वीरान आँगन है,
जहाँ...
रात के सन्नाटे में... बस चाँद उतरता है।

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27 AUG AT 23:38

"आँगन का चाँद"

देर रात,
जब गाँव के सारे दीये बुझ जाते हैं,
तो तुम अपनी बत्ती जला लेते हो...

छत पर पड़ी चारपाई के पास,
नीम के पत्तों से छन-छन कर,
जब तुम्हारी चाँदी ज़मीन पर बिछती है,
तो लगता है...
किसी ने आँगन में पानी छिड़क दिया हो।

अम्मा कहती थीं, तुम में एक बुढ़िया चरखा कातती है,
मुझे तो हमेशा तुम,
रसोई में रखी वो घिसी हुई स्टील की प्लेट लगते हो,
जिस पर रात की रोटी का आख़िरी टुकड़ा रह गया हो।

शहर वालों के लिए तुम ईद और करवाचौथ के हो,
मेरे लिए...
मेरे अकेलेपन के गवाह हो।

अच्छा सुनो...
आज छत पर अकेला हूँ,
नींद नहीं आ रही...
कल सुबह जब सूरज पूछे, तो कह देना...
"वो जाग नहीं रहा था, बस ख़्वाब ज़रा गहरे देख रहा था।"

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27 AUG AT 16:03

"शिकायत"

ज़िंदगी से यही शिकायत है,
कि जब धूप तेज़ होती है,
तो छाँव देने वाला दरख़्त दूर कहीं होता है...
और जब बारिश आती है,
तो काग़ज़ की नांव बनाने का वक़्त नहीं होता।

ज़िंदगी से यही शिकायत है,
कि वो सबसे ज़रूरी बात...
हमेशा दरवाज़ा बंद करने के बाद याद आती है,
और वो सबसे पसंदीदा गीत,
हमेशा सफ़र ख़त्म होने पर शुरू होता है।

ये नींद भी तो देखो...
जब सारी रात जागना हो, तो पलकों पर बैठी रहती है,
और जब सुबह जल्दी उठना हो, तो तकिये में छुप जाती है।

शिकायत बस इतनी सी है...
कि ये साँसें,
हमेशा वक़्त से या तो एक क़दम आगे चलती हैं,
या एक क़दम पीछे...
मेरे साथ... हमक़दम क्यों नहीं होतीं?

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24 AUG AT 23:11

ज़िंदगी: आधी पौनी नज़्म

ज़िंदगी क्या है...
सुबह की चाय से उठा हुआ वो धुआँ है
जिसमें कल के ख़्वाब की शक्ल घुली होती है

या वो चाबियों का गुच्छा है
जिसमें एक चाबी हमेशा कम पड़ जाती है
कोई न कोई दरवाज़ा बंद रह जाता है...

कभी लगती है,
किचन के सिंक में पड़े जूठे बर्तनों का ढेर है
जिनको माँजते-माँजते उम्र की आधी दोपहर निकल गयी

कभी लगती है,
वक़्त की अलमारी से गिरा हुआ कोई पुराना ख़त है
जिसकी स्याही तो फैली है...
पर हर्फ़ अब भी पढ़े जाते हैं...

ज़िंदगी...
रोज़ थोड़ा-थोड़ा किश्तों में मिलती है,
एक साथ पूरी कहाँ मिलती है...
शायद इसीलिए...
मौत आने पर हिसाब नहीं लगता!

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30 JUL AT 22:41

धूप के आँचल

माँ के आँचल में जो उजास बँध जाता है,
वहीं से जीवन की सुबह शुरू होती है।
बचपन की ढलती परछाइयाँ,
धूप में छुपा मीठा डर,
पकड़ती रही अंगुली—
हर सड़क, हर मोड़, हर दोपहर।

माँ बरामदे में रोटियाँ सेंकती थी,
धूप का टुकड़ा साड़ी से खींच लाती थी।
आँगन में बैठी दादी—
छिलके में छुपी अमरूद की मिठास,
सबको बुला लेती छाँव में,
अजीब-सी सुकून वाली उनींदी आवाज़।

धूप के आँचल के नीचे
छुप जाती थी थकान,
जीवन की बेमौसम बरसात
यहीं आकर सूख जाती थी।

अब जब शहर में अकेले चलता हूँ
हर कन्धे पर एक अनचाही धूप
याद आता है मां का वो आँचल—
जहाँ पसीना भी कस्तूरी महकने लगता था।

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10 JUL AT 22:41

हर बात की एक वजह होती है

जो होता है, होने दो, उसकी कोई वजह होती है,
हर अनकही कहानी की, अपनी एक जगह होती है।

यूँ ही नहीं कोई फूल, शाख से टूट जाता है,
यूँ ही नहीं कोई राही, राह में छूट जाता है।
शायद टूटना ही सिखाता है, फिर से नया उगना,
शायद छूटना ही सिखाता है, अकेले भी चलना।
हर हार के दामन में, एक नई सुबह होती है,
जो होता है, होने दो, उसकी कोई वजह होती है।

कभी बंद होते दरवाज़े, हमें रोकते नहीं,
वो नए रास्तों की तरफ, हमें मोड़ देते हैं।
जो छीन लेती है किस्मत, एक हसीन सपना कभी,
वो नींद से जगाकर, हकीकत से जोड़ देते हैं।
हर ठोकर में भी छिपी, कोई न कोई सलाह होती है,
जो होता है, होने दो, उसकी कोई वजह होती है।

आज जो दर्द का सागर है, और आँखों में पानी है,
कल शायद इसी से लिखनी, कोई बड़ी कहानी है।
वक़्त की इस पहेली को, आज समझना मुश्किल है,
पर हर उलझे धागे में, एक सिरा-ए-मंज़िल है।
उस ऊपर वाले की हर मर्ज़ी में, कोई सलाह होती है,
जो होता है, होने दो, उसकी कोई वजह होती है।

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10 JUL AT 11:58

तुम्हारे बिना मैं कैसा हूँ

पूछा है तुमने, कि तुम्हारे बिना मैं कैसा हूँ,
चलो आज तुमको इसका जवाब देता हूँ।

मैं एक ऐसा घर हूँ, जिसमें दीवारें तो हैं, पर छत नहीं,
एक ऐसी नमाज़ हूँ, जिसमें दुआ तो है, पर बरकत नहीं।
साँसें तो चलती हैं मेरी, मगर उनमें ज़िंदगी नहीं,
मैं अपने ही वजूद में हूँ, पर मुझमें 'मैं' कहीं नहीं।

मैं एक ऐसा आसमाँ हूँ, जिसका कोई चाँद नहीं,
एक ऐसी महफ़िल हूँ, जिसमें कोई बात नहीं।
दिन तो होता है, पर सूरज में वो चमक कहाँ,
रातें तो आती हैं, पर ख्वाबों में वो रौनक कहाँ।

मैं भीड़ में हँसता हुआ, एक गहरा सन्नाटा हूँ,
मैं कागज़ पर खींची हुई, एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा हूँ।
हँसने की कोशिश में जब आँखें भीग जाती हैं,
समझ लेना, बस इतनी सी कहानी बाकी है।

तो संक्षेप में बस इतना समझ लो...
तुम्हारे बिना मैं, मैं जैसा हूँ ही नहीं।
एक सवाल हूँ जिसका कोई जवाब नहीं,
एक ऐसी किताब हूँ जिसका कोई नाम नहीं।

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9 JUL AT 7:36

अगर है मोहब्बत ....

तो सुनो,
ये सिर्फ महकती शामों और चाँदनी रातों की बात नहीं,
ये सिर्फ हंसी मुलाकातों और मीठी बातों की सौगात नहीं।

अगर है मोहब्बत,
तो अमावस के अँधेरे में मेरा हाथ थाम सकोगे क्या?
जब खामोशी घेरेगी मुझे, तो अपनी आँखों से बात कर सकोगे क्या?
मेरे बिखरे हुए टुकड़ों को समेट कर,
उन्हें अपने दिल के करीब रख सकोगे क्या?
मेरी जीत पर ही नहीं, मेरी हार पर भी मेरे साथ रह सकोगे क्या?

क्योंकि,
मोहब्बत सिर्फ खुशियों में गुनगुनाना नहीं है,
बल्कि ग़म के सन्नाटे में साथ निभाना है।
ये सिर्फ पाने का नाम नहीं,
बल्कि किसी की खुशी के लिए खुद को मिटाना है।

तो बताओ...
अगर है मोहब्बत, तो ये सब मंजूर है तुम्हें?
मेरा इश्क़, अपने हर अंजाम के साथ, कबूल है तुम्हें?

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5 JUL AT 9:32

जब तुम साथ होते हो.....

दिन की शाम सुहानी होती है,
जब तुम साथ होते हो।
हर फ़िक्र धुएँ में उड़ जाती है,
जब तुम साथ होते हो।

सूरज भी ज़रा ठहरकर, रंग घोलता है ज़्यादा,
हवाओं में घुल जाता है, कोई अनकहा सा वादा,
ये दुनिया और भी प्यारी नज़र आने लगती है,
हर धड़कन एक नई कहानी होती है,
जब तुम साथ होते हो।

वो दिनभर की उलझन, वो सारी भाग-दौड़,
सिमट जाती है आकर, बस तुम्हारी ही ओर,
खामोशी भी बातें करने लगती है,
हर साँस में एक रवानी होती है,
जब तुम साथ होते हो।

एक ही कप से चाय, और बातें हज़ार,
वक़्त भी थम जाता है, देख अपना प्यार,
बस यही लम्हे तो ज़िंदगानी होती है,
और दिन की शाम सुहानी होती है,
जब तुम साथ होते हो।

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3 JUL AT 14:45

मेरा किरदार....

मैं ज़िंदगी को किसी किताब सा सीधा नहीं पढ़ता,
हर पन्ने पर अपने उसूलों की स्याही से कुछ लिखता हूँ।
मेरे सच शायद ज़माने को अक्सर कड़वे लगते हैं,
मैं आईना हूँ, मेरे आगे नक़ाब कहाँ टिकते हैं।
इसी बेबाकी की सज़ा अक्सर मैं सहता हूँ,
पर जो एक बार मिलता है, उसकी यादों में तो रहता हूँ।
मेरी महफ़िल से बेशक वो उठकर चले जाते हैं,
पर मेरी कही बातें, उनके ज़ेहन में गूँजते रह जाते हैं।
यक़ीनन, किरदार ख़ूबसूरत है मेरा,
लोग छोड़ सकते हैं, लेकिन भूल नहीं सकते।

मैं रिश्तों में मुनाफ़े का हिसाब नहीं करता,
जो मेरा हो गया, उसे दिल से कभी ख़ारिज नहीं करता।
मेरी हँसी में एक बच्चे की मासूमियत ज़िंदा है,
मेरे ग़ुस्से पे शायद मेरा सब्र भी शर्मिंदा है।
मैं वो मौसम हूँ जो एक साथ नहीं रहता,
कभी धूप, कभी छाँव, कभी बिन बताए बहता।
शायद इसी उलझन से घबराकर लोग चले जाते हैं,
पर मेरे जैसे जज़्बात फिर कहाँ ढूँढ पाते हैं।
क्योंकि, किरदार ख़ूबसूरत है मेरा,
लोग छोड़ सकते हैं, लेकिन भूल नहीं सकते।

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