क्या सोच के निकले थे तुम
दुनिया की गलियों में, राहों में!
ये तन्हाई का रास्ता है,
बैठ के सुस्ता लो
इश्क के शजर की पनाहोंं में।-
जहाँ में अगर कुछ हमदर्द होते
तो हम भी कुछ कम बेदर्द होते
तूने दरवाज़े से ही रुखसत कर दिया
वरना हम तेरी दहलीज की गर्द होते
अगर तेरे लहू से सजाते मौसम
तो मई जून भी कितने सर्द होते
तूने सजाये नहीं बाग़ बग़ीचे वरना
बहार में खिले पत्ते भी ज़र्द होते-
जीवन को जब भी महसूस किया
मैंने कुछ ज़्यादा ही महसूस किया
छोटा लम्हा भी ग़म या ख़ुशी का
दिल ने पूरे दिल से महसूस किया
दुनिया ने हँस कर भुला दी वो बात
मैंने रोकर उसे बरसों महसूस किया
बारिश में गीली मिट्टी जो महकी
अपने कच्चे घर को महसूस किया
शायद बस एक चिराग़ ही था वो
जिसको मैंने सूरज महसूस किया
उसको जब जाते हुए देखा मैंने
फिर नहीं कुछ भी महसूस किया-
इश्क के जनाजे़ निकालने आई है
दुनिया दिल के तमाशे देखने आई है
बहुत भीड़ है आज मयकदे में
पैमाने को बचाने की रात आई है
शायद निकल ही जाए आज लबों से
कई बार जो लबों तक बात आई है
ज़रूरत के दम से ही काबिज़ है मरासिम
तितली कहाॅं सूखे फूलों के पास आई है-
गुलशन गुलशन फिरता भंवरा
दुनिया की बातें क्या जाने
जिस गुल को ढूॅंढे हर बगिया में
उस गुल को दुनिया क्या जाने।
सियासी किस्से, जंगी फ़साने,
कारोबार की बातें हम क्या जाने
ज़ालिम माशूक, दिल की तबाही
इश्क के सौदे दुनिया क्या जाने।-
अधूरी सी
धीमी सी ये रात,
अधूरी सी
तेरी मेरी ये बात,
अधूरे सपने
मेरी आँखों में,
तकते तुझे
पूरा होने की चाहत में।-
अंधेरे में फैले सन्नाटे की
चुप्पी हमने तोड़ी है
उसके साथ बैठेंगे आज
ये रात पराई थोड़ी है
एक अफ़साना कह लेंगे
एक अफ़साना सुन लेंगे
बाँट लेंगे किस्सों की जो
फ़ेहरिस्त दोनों ने जोड़ी है-
वफ़ा के राही हो तुम
ये अफ़वाह उड़ाई किसने
कोई मरासिम न दरमियाॅं
ये हकीकत बताई किसने
ख़त लौट आए सारे
उस घर के पते से
जहाँ लौट के आने का
करार किया था हमने
सफ़र की थकान अभी
मिटी भी नहीं थी लेकिन
राह तेरी यादों की
फिर से पकड़ ली हमने-
शून्य और एक का संबंध
मैं एक हूॅं, एकाकी हूॅं।
और विस्मय विमूढ़ खड़ा तकता हूॅं
आज शून्य को।
मेरे अस्तित्व का सर्वमान्य अर्थ है
शून्य से बढ़कर होना,
पर जब शून्य की ऑंखों में तकता हूॅं
तो सब कुछ उसे ही पाता हूॅं।
शून्य का कुछ नहीं होना, है मात्र अर्ध सत्य।
शून्य में निहित सब कुछ,
शून्य में निहित कुछ भी नहीं।
शून्य के सिवा 'सब कुछ' ही है 'कुछ नहीं'।-
इक गली चौराहे से है जन्नत को
दूजी गली जहन्नुम तक है जाए;
ख़ुमारी अभी है सर पे इश्क की
देखो कदमों को कहाँ ले जाए।
बैठे हैं शाख़ पर जब तक
उनसे गुफ़्तगू की जाए,
इस लम्हे के खटके से
यादों के परिंदे कब उड़ जाए।
ऊॅंघती सी नीली सर्द रात में
जब चाँद भी ठिठुरने लग जाए,
धुआँ उठे यूँ उसकी पेशानी से
महकी हुई रात फिर जल जाए।-