डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'  
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लेखन (शैक्षिक-साहित्यिक), सम्पादन, समाज सेवा, राष्ट्रीय महासचिव- उन्मेष
Joined 27 May 2019


लेखन (शैक्षिक-साहित्यिक), सम्पादन, समाज सेवा, राष्ट्रीय महासचिव- उन्मेष
Joined 27 May 2019

जब वो हँसता है ना;
तो लगता है जैसे -
असंख्य गुलाबी फूल
भोर की लालिमा में
स्नान कर; हो गए हों-
और भी सुकुमार!
जैसे रजनीगंधा ने
बिखेरी हो सुगन्ध
आँचल की अपने!
जैसे मोती- भरे सीप
भर लाई षोडशी लहर
किनारे पर उड़ेल गई!
या प्रेयसी ने पसारी हों
अपनी प्रतीक्षारत बाहें!
चुप से रहने वाले उस
गम्भीर प्रेमी के लिए
जिसे मुक्त पवन भी
न कर सकी हो स्पर्श!

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कोई भी नहीं पहचानता मुझे
नहीं जानती अराजक भीड़ भी
जो निरंतर जपती रहती है
पेट या फिर अधोस्थित अंगों के मूलमंत्र ही
अवकाश कहाँ है इतना उसे
ठहरकर थोड़ा अरण्य मध्य
विरक्त साध्वी हेतु कुछ क्षण दे
और यह पूछे कि आनंद कैसे मिला?

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कर्मयोगी...हमारे पूर्वज
ध्रुव...
सौतेली माँ सुनीति ने
सिंहासन पर बैठे
पिता की गोदी से
धक्का मारकर
उतार दिया...
अपनी तपस्या
के बल पर तारा बने।
राम...कैकेई ने
वनवास दिलवाया...
मर्यादा पुरुषोत्तम बने...
सदियों तक अमिट, अजर,
अमर और अविनाशी।
मीरा... राणा का दिया विष पी गई...अमर हो गई।

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उसने कुटिल मुस्कान के साथ कहा,
मैं तो राहु हूं- तुम्हें ग्रास बना लूँगा।
मैंने मंद मुस्कान सहित निर्भीक कहा,
मैं तो सूरज हूं - कालिमा निगलता हूं।

तनिक सोच- भौहें नचाकर उसने कहा,
केतु हूं मैं- तुम्हारा तेज तो हर ही लूँगा।
मैं चंदा हूं- मैंने प्रसन्न मुद्रा में कहा,
कलाओं में निपुण- उगता चलता हूं।

नए रूप धर- धमकाता वह आजकल
और मैं उन्मुक्त - उषा के अंक में पड़ा हूं।
अब अरुणोदय होगा - कुछ क्षणों में ही
मेरे साथ समग्र विश्व हँसेगा- उसे हराकर।

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आश्वासन दे कामनाओं को,
मैंने चिरनिद्रा में सुला दिया।
सौ - सौ बार हुआ जीवन रण,
मन अभिमन्यु सा सदा रहा।
बार - बार मृत मन को नोंचा,
स्वजन ने प्रहार भला किया।
भावनाओं की अर्थी निकली,
संवेदनाओं को जला दिया।
विज्ञ अर्थहीन सम्बन्धों से थी,
फिर भी आमंत्रण खुला दिया।
परिपथ धैर्य ने साथ न छोड़ा,
रंगमंच पटल - संग खड़ा रहा।
निज साहस ने सिंगार किया
ये दीपक आँधी में जला रहा।

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वह अपनी पारी समाप्त कर रहा था,
और वह प्रारम्भ भी न कर सकी थी।

धीरे से सीख दी उसने कि सुनो ना,
यह जो निन्याननब्वे का फेर है ना।

है प्राण घातक - समेट लो स्वयं को,
और जियो जीवन को तुम मुक्त हो।

अब मुक्त का अर्थ खोज रही - वह,
और सौ तक गिनती रट रहा - वह।

और हाँ- सबसे बड़ा आश्चर्य यह है,
कि दोनों पीठ सटाकर प्रेम से बैठे हैं।

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पेड़ों के झुरमुट से ढके
घर की छत पर- फुर्सत के क्षणों में
नीले आकाश के कैनवास पर
गहन दृष्टि का ब्रश फेरते हुए - बड़े ध्यान से
लम्बे समय में एक चित्र खींचा गया
बहुत सुंदर बनी वह कलाकृति
उन्नत ललाट, मन्द मुस्कान, सरस होंठ
और दूर तक साथ चलने की हठ करती
वही- अँधेरों में उजाले बिखेरती आँखें
वही आत्मविश्वास, वही दृढ़ता
कैनवास पर उभरा चेहरा बता रहा था कि
दुनिया का सबसे पवित्र भाव है - प्रेम
किन्तु है ना आश्चर्य, कि प्रेमियों के घर नहीं होते
आकाश में ही जीवंत होती हैं- कलाकृतियाँ
नीचे हस्ताक्षर में लिखा होता है -
दुस्साहस और अनैतिकता ।

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पेड़ों के झुरमुट से ढके
घर की छत पर- फुर्सत के क्षणों में
नीले आकाश के कैनवास पर
गहन दृष्टि का ब्रश फेरते हुए - बड़े ध्यान से
लम्बे समय में एक चित्र खींचा गया
बहुत सुंदर बनी वह कलाकृति
उन्नत ललाट, मन्द मुस्कान, सरस होंठ
और दूर तक साथ चलने की हठ करती
वही- अंधेरों में उजाले बिखेरती आँखें
वही आत्मविश्वास, वही दृढ़ता
कैनवास पर उभरा चेहरा बता रहा था कि
दुनिया का सबसे पवित्र भाव है - प्रेम
किन्तु है ना आश्चर्य, कि प्रेमियों के घर नहीं होते
आकाश में ही जीवंत होती हैं- कलाकृतियाँ
नीचे हस्ताक्षर में लिखा होता है -
दुस्साहस और अनैतिकता ।

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पलकों पर रखे रंग-बिरंगे सपने
न थे, किन्तु, अब दिगन्त प्रसार।
जितना नभ का असीम विस्तार
पिय! तुमसे है कुछ इतना प्यार।

तुमने क्षितिज पर इन्द्रधनु- सा
कर डाला सतरंगी सब संसार।
मैं तो हिय -सी हूँ जड़ काया में
रुधिर तुम पिय! चेतन संचार।

विशाल परिधि को तुम घेरे हो
दिग-दिगन्त तक तुम आकार।
तुम रवि इस हरीतिमा धरा के
सदियों से देते जीवन-आधार।

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सिसक कली आँखों में झाँके,
खड़ी अपनी सखी के पास।
दुस्साहस कलियों का खिलना,
काँटों का नित गूँजे अट्टाहास।
बहारों का वो शूल सहलाना,
आज पंखुड़ियाँ गुमसुम उदास।
भौंरों के होंठ विषैले चूमते यों,
डालियाँ हुई अब बदहवास।
रातों को ओस रुला जाती,
सवेरे सूरज करता उपहास।
ये जो खिलने को उत्सुक थीं,
खिलती तो होता जग सुवास।
हवा ने भी बहुत जहर घोला,
माली को भी है यह आभास।
काँटे कितना भी चीरें आँचल
रस-रंग-सुंगन्ध का होगा वास।
इक दिन कलियाँ खिलकर झूमेंगी
है 'शैलसुता' को दृढ़ विश्वास।

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