अत्यंत अनंत पीड़ा सहकर,
नव जीवन का वो सृजन है करती।
अश्रुओं से सींच-सींच कर,
संस्कारों का है वो वृक्ष लगाती।
करुणा ममता प्रेम से सज्जित होकर,
दयाभाव की वो नदियां है बहाती।
विपत्ति विशेष में नवदुर्गा बनकर,
वीरों के वीर सा कौशल दिखलाती।
सम्पूर्ण नहीं बिन जिसके वैभव,
कोई और नहीं वो "माँ" कहलाती।-
जिस प्रकार विशालकाय वृक्ष में पत्ते ना हो
तो वो सूख जाता है,
उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में अनुशासन ना हो
तो वो हार जाता है।
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जाति–पाति से भेद न करता
नहीं करता मैं धर्म विभाजन,
जब राजा–रंक का एक ही कर्ता
फिर क्यों करता मन को खिन्न।
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निरंतर प्रयास की उपेक्षा होती रहे तो,
मौन होकर स्वयं से अपेक्षा ही उत्तम मार्ग है।
स्वयं को यम नियम के अधीनस्थ कर,
दूसरों को स्वतंत्र करना ही जयघोष है।।-
बड़ा बनने का शौक नहीं है, हमें छोटा ही रहने दो।
मैं जीता हुआ सिक्का नहीं, मुझे खोटा ही रहने दो।।-
दीदार बिना तरसाकर मुझको
महीनों रुखसत रहती हो
क्या मिल जाता तुमको जो ऐसा करती हो
इक रोज़ जो तुमसे ना मिलूं
दो बातें गर मैं ना कहूं
तो बिन पानी मछली सा तड़प उठती हो
कहना तुमसे बस इतना है
की ये तड़पन तो थोड़ा है
अभी और तड़पना बाकी है
अभी और बहकना बाकी है-
डरता हूं की कहीं तुम्हारे होंठों की मुस्कान ना रूठे
इसलिए बोलते बोलते चुप सा हो जाता हूं
मेरी नाराज़गी से कहीं ज्यादा है मोहब्बत तुम्हारी
इसलिए नाराज़गी को नज़र अंदाज कर जाता हूं
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तू दूर है तेरी यादें हैं तू पास है तेरी साँसें हैं
फिर क्यों तेरा मेरा करती है सब मेरा तेरा ही तो है।।-
हर रात हार जाता हूँ मैं,
जब जंग तुम्हारी
यादों से होती है ।
तन्हा तन्हा गुमसुम सा
खो जाता हूँ मैं,
जब याद तुम्हारी आती है ।
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किसी रोज़ किसी सुबह
सूरज की पहली किरण में
दूर कहीं इस भीड़ से
बैठूं मैं संग तेरे
खोकर तेरे प्यार में
रख लेना तुम सर अपना
बेशक मेरे इन कंधो पर
और
जब बात आए हमसफर की
तो चुन कर मुझे ही तुम
बसा लेना अपने
दिल के घरौंदे में-