चंचल सुधीर उमरेडकर   (रुद्र - संभव)
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Joined 24 July 2018


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बिना सप्तपदी और प्रदक्षिणा
के ही निश्चित हो गया था
हमारा एक दूजे का होना ,

हमने प्रेम में अग्नि से पहले
ईश्वर को साक्षी माना था...

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नही हैं मेरे पास...वे दिव्य शब्द
जिनके माध्यम से मैं हृदय में
समाहित अथाह प्रेम को प्रदर्शित कर सकूँ...

और ना ही हैं उतने नैनों में
नीर समायें जिन्हें बहाकर
मैं तुम्हें खो देने का भय प्रदर्शित कर सकूँ ...

मैं तुम्हारे प्रेमव्यूह में फंसा
वो अभिमन्यु हूँ जो नि:शस्त्र मारा जायेगा !

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संभवतः प्रत्येक मानव हृदय में एक अव्यक्त रहस्यमयी कथा छुपी हुई होती ही है , जिसके विषय में उन्हें यह भय होता है कोई सुनेगा नही या गंभीरता से नही लेगा । संभवतः अनुभवों और मूल्यों के अंतर के कारण...और स्वयं के अंतरगर्भ में एक अव्यक्त कथा को संजोए रखने से बड़ी वेदना कोई अन्य नही हो सकती । वे सभी उन कथाओं के साथ ही मृत हो जाते हैं , और यह रहस्य सदैव आत्मा और ईश्वर से बीच स्थित होता है । काया आत्मा से विमुख होती होगी किंतु कथाओं का तरंग जन्म जन्मान्तरों तक अपने तक अपना अस्तित्व बनाएं रखता है....

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संगिनी का स्वरूप कैसा होना चाहिए...

कभी छाया सी सुकोमल ,
कभी दहकती धूप सी होनी चाहिए...

कभी नभ की नीलिमा सी ,
कभी अवर्ण नीर होनी चाहिए...

कभी गर्जित मेघों सी ,
कभी मंद समीर होनी चाहिए...

हर संगिनी ऐसी अनूप होनी चाहिए...

हो यदि वियोग में तो ,
अनिष्फल तीर होनी चाहिए...

विकट क्षणों में भी उसमें ,
सारस सी धीर होनी चाहिए...

सहस्त्रों शैल शिखरों को ,
जो चीरे वो गंगा नीर होनी चाहिए...

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किसी से प्रेम करते-करते ,
जब पाषाण सम हो जाओगे...
तब संभवतः तुम भी पूजे जाओगे ,
मानव इतिहास में प्रेम की परंपरा ,
केवल पाषाणों को पूजने में ही रही है...

प्रेम की तृष्णा लिए आजीवन जो भटके ,
वो नयनों की ज्योतियाँ भी तमस में लीन हुईं...
वह काया भी पूर्णतः पाषाणीय हो गई थी ,
जैसे कोई मृतक यहाँ देवता हो जाता है...

उन्हीं पाषाणों के मध्य प्रस्फुटित ,
उस प्राच्य वृक्ष पर शीश नवाता है...
वो समाज जो आजीवन अनिभिज्ञ था ,
उन हिय स्पंदनों के मूल्य से...

अपनी मनोकामनाओं की डोरियाँ ,
उन्हीं शाखाओं पर बाँध जाते हैं...
सरल नही है इस कालखंड में ,
स्वयं के प्रेम को प्राप्त कर लेना...
और यदि किसी से प्रेम हो जाए ,
तो पाषाण सदृश हो जाना...

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एक सीता का यदि साथ है , तो समझो सबकुछ पास है...

जीवन कहते हैं जिसे , वो राम का वनवास है...

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" युवा दिवस "

पूर्ण विषय अनुशीर्षक में पढ़ें...

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सवादें पूर्ण कहाँ होती हैं
सुनने वाले सो जाते हैं

कथानक के प्रेमी यदा-कदा
कथाएँ घर पर भूल आते हैं

क्या , भाव अभी भी शेष है ?
हाँ ! केवल स्वप्न आते जाते हैं

संदेशों के आतुर प्रतिक्षक
घर भी सुने रह जाते हैं

संसार से विलग कुछ हम जैसे
ना जाने कहाँ खो जाते हैं

कुछ स्मृतियाँ शेष रह जाती है
कुछ स्वप्न भी आते जाते हैं

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प्रेम में आकर्षण संभवतः रूप से होता होगा...

किंतु स्थिरता व्यवहार पर निर्भर करती है....

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अभितट पर स्थित एक मौन पाषाण हुँ ,
मैंने सरिता के सहस्त्रों नख़रे देखे हैं ! !

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