सिर्फ़ यह सोच लेना कि “मैं अगला जन्म नहीं लेना चाहता” मोक्ष की प्राप्ति का संकेत नहीं है। आत्मा तब तक बंधन से मुक्त नहीं हो सकती जब तक प्रारब्ध और कर्मों की जंजीरें उसे जकड़े हुए हैं।
मोक्ष एक लंबी और निरंतर यात्रा का परिणाम है, जिसमें आत्मा अनेक जन्मों के अनुभवों और शिक्षाओं से परिपक्व होती है।
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स्वयं से बेहतर प्रेरणा का कोई स्रोत नहीं हो सकता,
क्योंकि सच्चा बल आत्मा के प्रकाश से ही प्रकट होता है। यदि भीतर आत्मज्ञान की ज्योति नहीं जलेगी,
तो बाहर की कोई वाणी या शब्द हमें जाग्रत नहीं कर पाएंगे। प्रतीक और चिन्ह हमें केवल दिशा दिखाते हैं,
परंतु मार्ग पर चलने का साहस आत्मा से ही मिलता है।जीवन का सफर बाहर नहीं, भीतर तय करना होता है,और जब आत्मा से जुड़ जाते हैं, तब हर कठिनाई साध्य बन जाती है।
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जीवन का बोझ वास्तव में केवल रोगी शरीर का बोझ नहीं होता, बल्कि यह उस आत्मा की परीक्षा भी है जो शरीर के साथ जुड़ी है। जब एक-एक क्षण दवाइयों पर निर्भर होकर बीतता है, तब मनुष्य समझता है कि जीवन का अर्थ केवल स्वस्थ शरीर नहीं, बल्कि सहनशीलता और धैर्य भी है।
कोई भी उस पीड़ा को पूरी तरह नहीं समझ सकता, क्योंकि यह अनुभव व्यक्ति की निजता है, उसकी अपनी लड़ाई है। ऐसे में प्रार्थना और मौन ही साथी बन जाते हैं। ईश्वर के सामने आँखें भर आती हैं क्योंकि वहीं एकमात्र शरण मिलती है।-
मैंने प्रेम को तीव्र गति से जलती हुई अग्नि की तरह देखा है,
जिसके आभामंडल में कोई भी पतंगा स्वयं को समाप्त कर देने को विवश हो जाता है।
‘प्रेम’ सुनने में यह केवल एक साधारण शब्द है,
पर इसकी परिभाषा हर हृदय में अलग जन्म लेती है।
किसी के लिए यह पाने और खोने का खेल है,
तो किसी के लिए कछुए की धीमी चाल सा अंतहीन इंतज़ार।
कभी यह धुंधला, अनजाना सफ़र लगता है,
तो कभी शिथिलता के शिखर पर खड़ा कोई असंभव मुकाम।
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मैंने जीवन को उसके सहज रूप में स्वीकारा।
कठिनाइयों ने चाहे कितनी ही बार दस्तक दी हो,
पर सहजता ने मुझे थामे रखा और मैंने उसे।
यही आप भी कर सकते हैं,
सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर।
इस जटिलताओं से भरे युग में,
सहजता का प्रकाश अंधेरे में भटकती आत्माओं
को मार्ग दिखा सकता है।
आप यदि स्वयं सरलता का दीपक बन जाएँ,
तो अनेक आत्माएँ गर्त में गिरने से बच सकती हैं।
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ज्यादा समझदार लोग अक़्सर अपनी ही समझ के जाल में उलझ जाते हैं।
वे हर संभावना को तौलते हैं, हर रास्ते को परखते हैं, हर परिणाम को पहले ही सोचकर थक जाते हैं।
जहाँ साधारण लोग चलकर अनुभव पा लेते हैं, वहाँ समझदार केवल सोचते-सोचते अवसर खो बैठते हैं।
उनकी यही सजगता धीरे-धीरे सावधानी में बदलती है, सावधानी डर में, और डर निष्क्रियता में।
इस तरह वे पूरे विवेक के साथ अपनी ज़िन्दगी को जीने के बजाय विश्लेषण में गँवा देते हैं।
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यह सोच लेना कि “मैं तो सुरक्षित हूँ” एक भ्रम है, क्योंकि समाज एक जुड़ा हुआ ताना-बाना है,एक धागा भी टूटे तो पूरी बुनावट कमजोर पड़ जाती है।
दरअसल, हर घटना हमें चेतावनी देती है कि बदलाव की ज़रूरत है।समाज तभी जीवित रह सकता है जब व्यक्ति यह समझे कि उसकी ज़िम्मेदारी केवल खुद तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे परिवेश तक फैली हुई है।
यही जागरूकता भविष्य के संकटों को रोक सकती है और यही संवेदनशीलता इंसान को इंसान बनाए रखेगी।-
अवचेतन मन की अव्यक्त प्रतिध्वनियाँ
कभी शून्य में विलीन नहीं होतीं।
वे निरंतर किसी अदृश्य तंतु पर
संवाद रचती रहती हैं
मानो आत्मा के गर्भ में
कोई अन्य सत्ता विराजमान हो,
जो चुपचाप प्रतीक्षा कर रही हो
स्वयं से मिलन की क्षणिका की।
प्रेम तो केवल एक प्रतीक हो सकता हैं ,
किन्तु उसके पार भी
विश्वास, करुणा और स्मृति के सूक्ष्म बंधन हैं,
जो चेतना के तल को छूते-छुपते
अनवरत बहते रहते हैं।
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ईश्वर तक पहुँचने का विधान भी ऐसा ही है।कौन-सा मार्ग किसी आत्मा को उसके परम गंतव्य तक ले जाएगा,यह न मनुष्य जान सकता है, न उसकी बुद्धि।यह रहस्य केवल ईश्वर के पास है,या उस आत्मा के गहनतम मौन में।मनुष्य कर सकता है तो केवल यही प्रयास और प्रतीक्षा।शेष मार्ग स्वयं प्रकट होता है जब आत्मा तैयार होती है।
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जीवन का सबसे कठिन पाठ है — बुढ़ापा। यह पाठ हमें माता-पिता जीकर सिखाते हैं। उनकी थकान, धीमी होती साँसें और समय का बोझ हमें दिखाता है कि अंतिम सत्य से कोई नहीं बच सकता।
माता-पिता ही वे हैं जो हमारी पराजय भी स्वीकार लेते हैं, जबकि संसार और स्वयं हमारे कंधे भी ऐसा नहीं कर पाते। तब रक्त ठंडा पड़ने लगता है, शरीर जीवित तो रहता है पर सक्रियता खो देता है। यही बुढ़ापा है—एक कठोर पर अनिवार्य शिक्षा कि अंततः सब कुछ क्षणिक है और मनुष्य को अपने अस्तित्व का भार स्वयं उठाना होता है।
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