मेरे गांव की वो कच्ची पगडंडियां
याद है मुझे अब भी,जब खेला करती थी घंटों वहां।
मां छुट्टियों में ले जाती
और मैं खुब मज़े करती।
उन कच्ची पगडंडियों पर मैं नंगे पांव दौड़ती
गांव की कुछ सहेलियां मेरे पीछे भागती,
और मैं अपनी नीली फ्रॉक पहने एक हाथ से उसे
पकड़ कर दौड़ती।
सहेलियां कहती रूक जा अब हम थक गए,
पीछे से घर वालों की आवाज लौट आ अब आगे न जा।
मैं किसी की न सुनती
बस अपने धून में रहती।
आखिर बचपन तो बचपन ही होता है।
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