एक रोज़ देखा उसे झांकते, मेरे दीदार को।
मेरे अक्स को देखा करे, आइने में शाम को।
मैं हफ्ता सा काँपता सा पहुँचता था उस डगर,
नब्ज मेरी रुक सी जाती रूप उसका देखकर।
जुल्फ थी उसकी या आसमा की काली घाटा,
आए मुझे वो देखने खिड़कियों से पर्दे हटा।
सर्दियों की धूप भी जाने क्यों इतनी गर्म हैं,
सख्त से ये रास्ते भी मखमली और नर्म हैं।
वो देखना चाहे मुझे मैं देखता बस उसको ही,
बहोत आला रूप उसका दीवानगी सर चढ़ रहीं।
सोच बैठा एक दिन क्यूँ ना उसको बोल दूँ,
दिल में छुपी हर बात को क्यूँ ना उसपे खोल दूँ।
कुछ रोज से देखा नहीं क्या खता मुझसे हुईं,
एक दिन आई ख़बर किसी और संग रुख़सत हुईं।
मैं आज भी जाता वहा बस आख़िरी मुलाक़ात को,
वो लौट फिर आई नहीं वो भूल गई हर बात को।
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