रचयिता ने
जैसे हम बन गए
हमें स्वीकार किया
इसलिए उसने
मस्तिष्क को
कोरा कभी नहीं किया
स्याह रातें रही
दिन में कुहासे
सफ़र फिर भी जारी किया
तय नहीं किए पैमाने
न बांधा उन्मुक्त प्रकृति को
हम स्वच्छंद उड़ सके परिंदे
पूरा आसमां ही हमारा किया
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शजर पर हैं शाख कितने
शामत कैसे आई पर . .. . .
शाख के रहे ऊंचे ठिकाने
शजर आई मिट्टी पर. . . .
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नयी भावनाओं का काम नहीं
उम्र इक इंतजार में तमाम सही
वो कहकर गया है कि लौटूंगा
प्रेम में शक का नामों निशां नहीं
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इश्क़ गलियों में बागों में
तितलियों सा चहकता
हर हृदय की धड़कन में
लगा है सहज इस दौर में
चौखट पर रेखाएं .. ..
रेखाओं से बाध्यता
गाथाएं प्रेम की रही अमर
होंगी महज़ कहानियों में
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हर रोज़ ढूंढती तुझे
कुछ रिक्त सा लगता
सब अतिरिक्त बाद भी
मौन लगता हर गीत भी
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तुम्हारी यादें एकटक
अनायास ही आकर
होंठों पर मेरे ठहर जाती है
ठीक उसी ओस की बूंद की तरह
मैं हृदय से भाव -विभोर होकर
फिर अंतस मन तक प्रफुल्लित हो उठती हूॅं
और हृदय का कोना-कोना
एक संगीत संग रीझता चला जाता है
उस यादों के संगीत संग्रह में
जहां तेरी- मेरी सभी मानवीय संवेदनाएं निहित हैं
जब भी उन्हें मैं महसूस करती हूॅं
ओस की बूंदों की तरह उनमें
उसी समान एक दिव्य चमक दिखाई पड़ती है
और उस गोलकार मोती में अपना पूरा संसार
मैं एकटक निहारती और रीझती
दूसरे ही क्षण समाज के शिकंजो से
कसा तुफान एक , उस संसार को घिर जाता है
फिर उम्र याद आती है मुझको उस ओस के बूंद की
जिसे क्षण भर क्षण बाद लुढ़क गिर निहत्था पड़
मिट्टी से टकरा उसमें अंतर्निहित हो जाना है
तब लगता है , मानो एक भयावह सपने से जाग उठी हूॅं
और कहीं दबे ख्वाहिश से गुजारिश करती हूॅं
कि ये ओस के बूंद की मोती बस ठहर कर रह जाए
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सुध बुध खोई गोपियां
कहां हो तुम कन्हैया
आराध्य उनके तुम
तारणहार भी हो तुम
पुलकित मन के हर्ष तुम
नटखट मनुहार करते तुम
छेड़ते बंशी की मधुर तान
सुनाते जग को मधुर गान
पनघट पर हो रास रचाते
गोपियों को जो हो सताते
माखन चुराते संग जो ग्वालों के
तट पर खेलते पावन यमुना के
सहर्ष बंधक होकर मां यशोदा के
भ्रमित करते बस निश्छल मन के
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धरा पर गीत प्रेम का मैं गाती हूॅं
मैं कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण गाती हूॅं
सौम्य मुख साज मुस्कान मैं देखती हूॅं
जिनमें समाहित ब्रह्मांड मैं उनकी बात कहती हूॅं
चीर कर काल के चक्र को जिसने जन्म है लिया
आकाशवाणी हुई सही प्रभु ने अवतरण है लिया
कंसहारी , पुतना और कालिया मर्दन जिसने नृत्य में किया
ऊंगली की नोंक पर उठा गोवर्धन घमंड इंद्र का चूर किया
यशोदा का लल्ला नटखट, गोपियों संग रास रचैया
राधा का प्यारा कान्हा, मीरा के गिरीधर कन्हैया
धरा पर गीत प्रेम का मैं गाती हूॅं
मैं कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण गाती हूॅं
लाज राख कृष्णा की , बीच सभा में,मीत है निभाई
सुदामा की भीगे चने भी भाग द्वारकाधीश ने है खाई
महाभारत की वीर गाथा में जो सारथी अर्जून का रहा
परम उपदेश गीता का सार जो जीवन के लिया दिया
अधर्म पर धर्म के लिए जो है रहा सदैव डटा
मनमोहना वो निज पीर सब सहता रहा जो घटा
प्रेम की पुलकित बागों में युगों तक जो गीत गूंजता रहा
नश्वर देह के भी समर्पण में बस कृष्ण कृष्ण रमता रहा
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