मेरी कलम में आज सियाही कितनी शेष है, ये भोले से दिखने वाले, सज्जनों के मन में कितने द्वेष हैं.. लिखने पर आऊं, तो बगावत लिख दूँ, इस कलम से.. पर इस बात पे निर्भर करता है कि, इन मुखौटों में चेहरे छुपाये, मेरे अपने कितने हैं..
मिलेंगे हम तुमसे, हाँ हम तुमसे.. और तुम हमसे.. घड़ी की सूइयां ज़रा रोक के मिलना, अधूरी वो जो बातें रह गयी है ना, उस दिन कह ही देना..हमसे दुबारा मिलो कभी हमसे फिर से, पहली बार की तरह..हमसे वो इत्तेफाक सा टकरा जाना फिर से, जैसे सोचा था ख्यालों में, ऐसे ही मिल जाना इक दिन फिर से.. हाँ माना इंतज़ार लंबा है फिर से, पर क्या पता, कब टकराना हो जाए फिर तुमसे, हाँ हम तुमसे, और तुम हमसे, मिलो एक बार, एक दिन फिर से...
हाल जिगर का कहना तुम भी, हम भी कुछ सुना देंगे.. अजनबी अनजानों की भीड़ में, अपना सा तुम्हें बना लेंगे... बात दिलों की होने दो ना, क्यूँ रोका है इसको बहाने से... मद्धम सी धड़कन बढ़ने दो ना, नाम हमारे आने से.. ज़िंदगी रेत सी फिसलती रहेगी, कब तक थामे बैठेंगे, आओ चलो कहीं दूर चलें, जहां बातें हो बस इशारों से...
सवाल तो कई सारे हैं, तुम जवाब बन जाओ ना.. दिनभर परेशानियां बहुत तंग करती हैं, तुम सीधा सा हल ढूंढ जाओ ना.. अब और कितने बहाने बनाने होंगे, करीब तुम्हें बुलाने के, कभी-कभी तो तुम भी इशारे समझ जाओ ना....