छाँव कर रहे जो आंख के इर्द गिर्द
बिल्कुल धूप के उन चश्मों सी है तू
तू ही जाने क्या छुपा है तेरे भीतर
कचहरी की झूठी कसमों सी है तू-
मेरा अंदाजा ही सरासर ग़लत है
कि मेरी हर बाज़ी आख़िरी में है
बिस्तर पे बड़े चैन से सोया हूँ में
दुश्मन है की मेरा बारहदरी में हैं
सहूलियत इस क़दर बढ़ा रहा हूँ
मेरे दाँव सारे उसकी तश्तरी में हैं
अपने बारे में सबकुछ बता रहा हूँ
मुझे पता है वो मेरी मुखबिरी में हैं-
बड़े हैं लल्ल छोटे लल्ल
ये मध्य लल्ल मंद लल्ल
जो दे रहे हैं अल्ल बल्ल
सब हो रहे विशेष लल्ल
लुटायें लल्ल लूटें लल्ल
डाकू लल्ल दानी लल्ल
हाँ भींच भींच दें लल्ल
यूँ खींच खींच दें लल्ल
लल्ल प्रबल लल्ल छल
लल्ल आज लल्ल कल-
भाव से भरा हुआ तू
तू घाव से उबार अब
पट्टियों को फेंक स्वयं
ज़ख्म को उतार अब
क्यों नही तू घाव से भी
हाँ प्यार कर दुलार कर
हाँ ज़ख्मी ही है यदि तू
नदी उफ़नती पार कर
मृत्यु सत्य है यदि तो
समय क्यों बिगाड़ता
क्यों नही स्वयं को तू
अब बोझ से उबारता
पथ निरन्तर अग्रसर
पथ निरन्तर अग्रसर
एक प्रहर बीत गया
अब दूजा है पुकारता
पथ निरन्तर अग्रसर
पथ निरन्तर अग्रसर
बस एक पल मध्यान्तर
सब दूजे पल निरन्तर-
ना जाने क्यूँ तुझे बिना सुने बिना जाने
दिल में तेरे लिये ग़लत ख्याल आता है
तू क्यूँ चुप रह जाती है हर इक बहस में
मेरे दिल ओ दिमाग़ में सवाल आता है
हँसी से काट दिये इल्ज़ाम कत्लेआम के
तेरी बेगुनाही मुझे ख़ुद मुंसिफ़ बताता है
ना जाने क्या क्या सोच लिया तेरे बारे में
रह रह के मुझे मेरा ग़ुनाह याद आता है
तू करे तो भी ख़ुद को माफ़ ना कर पाऊं
रह रह के टीस उठती है दर्द भी सताता है
ये क्या ख़ता की ये क्या ग़ुनाह किया मैंने
मुझे हर इक पल गुज़रा कल याद आता है-
चल के रफ़्तार में आई है बस
तब जाके उस पर नज़र पड़ी
मुझ फटेहाल से वो करे वास्ता
उसकी कलाई में कीमती घड़ी
जाँ पे आफ़त हुआ है कंडक्टर
इधर अपनी जेब ही फ़टी पड़ी
खिड़कियों से गये कितने शहर
मेरा स्टॉप अभी तक आया नही
खंडहर मकाँ है गली सिरफिरी
रूह काँपती है बदन में झुरझुरी
अब लौटने को कुछ और नही
बचे थे जो हौंसले वो आख़िरी
आवारगी से हुई है नोंक झोंक
मुझ पे हो रही ग़म की मुखबिरी
हर तरफ़ तबाही की तरफ़दारी
सांस बंजारा है जिन्दगी यायावरी-
तिमिर से तिलिस्म तक
तृप्ति से तिरस्कार तक
अधिकार से अस्वीकार तक
प्रतिरूप होने से प्रतिकार तक
पलकों से परिष्कृत दृश्य
निर्धारित सार्थक लक्ष्य
अनिर्णय के महायज्ञ
अशेष अवशेष आहुति
विस्तार से व्यवहार तक
सन्दर्भ से सरोकार तक
निराकार निर्गुण ही सर्वोत्तम है
सरलता वर्तमान का पराक्रम है-
ज्ञात है मुझे यह अनावश्यक है
अक्षम्य है अनाधिकृत है
मेरे द्वारा तुम्हें दिया गया दंश
अधिकार है प्रणय है प्रसंग है
काल कवलित हो गया है संबंध
टूट गया है क्षण में था जो अनुबंध
स्मृतियों,विलाप में बचे हैं प्रतिबंध
उधर तुम्हारा क्रन्दन इधर मेरा द्वन्द
जानकर ही सब हुआ है असत्य है
मुट्ठीभर रक्त और धौंकनी सी श्वास
हाँफती पसलियाँ निस्तेज क़दम
जानकर भी केशव में शव बना हूँ
में पी जाना चाहता हूँ सरल सी मृत्यु
ओढ़ना चाहता हूँ एक मीठी सी नींद
तुझमें घुल जाने के लिये ही में
अब चाहता हूँ स्वयं से मुक्त होना-
यक्ष निरुत्तर यम निराश है
मुझे वेदना ही उजास है
दर्द दुलारे पीड़ा पाले
डटा हुआ डर घेरा डाले
मृग मरीचिका सी है छाँव
व्यथा खड़ी है आँचल डाले
भय भी मेरा चिर परिचित है
यहीं अनिश्चय सम्मुख स्थित है
आंशिक कष्ट कसक अनुपाती
सन्ताप हुआ निष्ठुर प्रतिघाती
चहुँ ओर विपत्ति और विनाश है
हाँ कठिन प्रहर चारों उदास हैं
भोर रुदन है साँझ रुदाली
मातम करता है रखवाली
यक्ष निरुत्तर यम निराश हैं
मुझे वेदना ही उजास है-
जग सारा डूबा रहा इसी में
कैसे साधें स्वयम के स्वार्थ
जो जब जब सोचे है जैसा
होता है शनै: शनै: चरितार्थ-