"माया की भीड़ में खुद की खोज"
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तन्हा बैठी आत्मा कुछ सोच रही थी।
जीवन की राहों में खुद को खोज रही थी।।
शरीर की मोह-माया ने बांधा इस पार।
पर भीतर से उठता रहा मुक्ति का पुकार।।
खुशियों के साए थे क्षणिक और अधूरे।
मन के वितान में प्रश्न थे मगर पूरे।।
भौतिक सपनों का मेला था रंगीन।
पर अंतर्मन खाली — न कोई संगी, न कहीं छीन।।
जब थककर रुकी ये सांसों की डोर।
अंदर से आई वो आवाज़ बिन शोर।।
जो ढूंढा जग में, वो स्वयं में समाया है।
जीवन का मक़सद बस आत्मा को पाया है।।
ना धन, ना देह, ना रिश्तों का भार।
केवल परम सत्य से जुड़ना है सार।।
इस जग की दौड़ में जब थमा विचार।
तभी आत्मा ने देखा अपना सार।।-
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दुनिया ने दफन कर दिया मुझे जिंदा, इस खयाल में कि हम मर जायेंगे ।
उन्हें क्या खबर कि हम बीज़ हैं, फिर से एक नई आग बनकर आयेंगे ।।-
मेरे हाथ में किस्मत का वो सिक्का दबाकर बैठा हूं ।
चाल जो होश उड़ा दे वो इक्का दबाकर बैठा हूं ।।-
हमने प्यार से दूसरों को खुद से दूर करने की मजबूरी निभाई ।
क्योंकि जिंदगी में सिर्फ एक थी और एक ही आई ।
लेकिन उसी एक ने इस कोशिश को बेवफाई बताई ।
लड़ रहा दुनिया, खुद और खुदा से उसे ये न समझ आई ।
वादा मैने भी अब कर लिया है देता रहूंगा सिर्फ उसी की दुहाई ।
अंतिम सांस तक अब तू ही है, मान या ना मान यही है सच्चाई ।
कोई और नहीं है तेरे सिवा, मरते दम तक ये बात दिल में समाई ।-
मेरे गालों पर गुलाल लगाया उसने,
कि इस होली में मेरा नहाना नहीं हुआ ।
"अकेली तन्हा हूं तेरे बिना" ये कह गई जाते-जाते,
हम भी पहुंच गए खुदा के पास, कोई बहाना नहीं हुआ ।।-
बिछड़ जाने के बाद वो आंखों से उतर क्यों नहीं जाता ।
पूरी उम्र था साथ गांव में, बिछड़ने का कहर क्यों नहीं जाता ।
सपने जो देखे थे उसके साथ, सीने से उतर क्यों नहीं जाता ।
सीने में हैं जो जुदाई का जहर अब उतर क्यों नहीं जाता ।
पल पल में मार रहा, वक्त का ये लहर क्यों नहीं जाता ।
ये रंग उसके प्यार का मेरे बदन से उतर क्यों नहीं जाता ।
बिछड़ जाने के बाद अब वो बिछड़ क्यों नहीं जाता ।।-
छल से कमाई दौलत...
धोखे से कमाई शोहरत...
दिखावे से कमाई इज्ज़त...
की खुशी ठीक उसी तरह है...
जैसे फांसी से पहले खिलाए गए छप्पन भोग की खुशी ।
इसलिए जो है उसमें जिंदा रहो।
कम में भी न कभी शर्मिंदा रहो।
क्योंकि... जो तुम्हारे पास है वो कइयों को मिला नहीं ।
गुज़र है उनका मुश्किलों में लेकिन खुदा से कोई गिला नहीं ।-
इस हृदय की पीड़ा, सिर्फ तुम्हे एहसास है माधव ।
बाकी सबके लिए ये कुछ नहीं बस मजाक है माधव ।
तांडव ये समय का, बस तुम्हे ही ज्ञात है माधव ।
रोम रोम में तुम हो, बस तुमसे ही आस है माधव ।
जब भी ढूंढा नम आंखों से, बस तुम ही पास हो माधव ।
जन्मों के भी दुख कुछ नहीं, आखिर तुम्हारा दास हूं माधव ।
दुख कितने भी हों सह लूंगा, बस तुम साथ हो माधव ।-
आज फिर वो याद आया...।
कुछ पल ही सही उसे पास पाया ।
दर्द पुराना पर जख्म हरा है, इसका एहसास आया ।
एक अदद हसरत है कि देख सकूं उसकी छाया ।
नजर ढूंढती है हर वक्त हर लम्हा उसकी काया ।
कहां गया तूं अरसा हो गया नहीं दिखा तेरा साया ।
ऐ खुदा जालिम तूं है नहीं,
मिल जाए वो, इस कदर बिखेर अपनी माया ।
आज फिर वो याद आया... ।।-
आज फिर उन्हीं गलियों से गुज़र रहा ।
जहां के आशियां में बरसों बसर रहा l
ढूंढ रही गलियों में ये नजर उस बचपन को,
जो अब जवानी से आगे निकल रहा ।
क्या वक्त छोड़ आए, जो यारों के साथ था,
अब तो हर साल कुछ पल में निकल रहा ।
ऐ खुदा लौटा दे वो ज़माना,
जिसमें बचपन का घर हर शहर रहा ।
लौटा दे वो प्यारा शख्स,
जिसके लिए जिंदगी का मकसद दर-ब-दर रहा ।
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