एक तो मैं तनहा और ये चार- दीवारी
जो बाहर निकलूं तो फिर वही दुनियादारी
घर का बड़ा लड़का तो कलम उठा लिया
अब कौन उठाएगा घर की ज़िम्मेदारी
बाप - दादा तो फ़कीरी में चले गए
न कोई विरासत न कोई हिस्सेदारी
घर में कर्ज़ा बहुत है पर राशन नहीं
अब मैं नौकरी करूं या ईमानदारी
अभी आते होंगे ठेकेदार समाज के
काटेंगे मुझे धीरे-धीरे, बारी - बारी-
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पूर्वाग्रह से पीड़ित वैचारिक हनन की ओर हूं
मुझे ज्ञात हो चला...., मैं पतन की ओर हूं
विचारों को मार देना गैर-जमानती अपराध है
मुझे ख़ारिज करने वाले उस वतन की ओर हूं
मानसिक पीड़ा की प्रतिक्रिया मौन हो चुकी
स्तब्ध हूं!आखिर ये कैसे जतन की ओर हूं?
मेरे नाप का सफेद कपड़ा नहीं काट रहा
उसे पता चल गया मैं कफ़न की ओर हूं
नहीं! दरअसल,,मैं पतन की ओर हूं-
वैराग्य का कोई मोल है क्या?
हवा का कोई आकार?
या ऐसा कोई सांचा जहां पानी न ढल सके?
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नहीं ना?
कुछ ऐसा ही अनमोल है ख्याल तुम्हारा
मानो
अंतर्मन का प्रवेश
किसी निर्वात में-
इसी तरह
समस्त यातनाओं के बीच
एक क्षणिक इकाई "तुम"
जिसे समझ पाना
किसी विधा को सीखने से कम नहीं।
इन मिश्रित भावनाओं का
पृथक स्पष्टीकरण मांगता मेरा मन
और
हर बार की तरह
निरुत्तर
मेरा हृदय-
मैं तो जडत्व में थी
तुम ही वो बाह्य कारक हो
जिसने मुझ पर बल दिया
और मैं चलने लगी
बस इसी तरह
प्रेम के विज्ञान को चुना मैने
दुख
केवल इस बात का है
कि तुमने मुझे
गतिशील तो कर दिया
पर मेरे साथ नहीं चले
© चैतन्य-