चांद को नहीं आता था
प्रकाश का संगीत
परंतु धरा को तो लुभाना था
फिर धरा ने जो सुना रात भर
नेपथ्य में गाया
सूरज का वो गाना था
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शेष सब पिघलता रहा उम्र भर
उखाड़ मत फेंकना
मजबूरियों के शिशिर में
ठूंँठ हुआ प्रेम
सहूलियत का मौसम होगा
तो फिर खिल उठेगी
नव कोंपल
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गुलाब के बूटे-सा था
तुम्हारा प्रेम
जिसकी कंटकों-सी दुश्वारियों में
उलझ गया मेरा मन
फूलों-सी सरलता होती केवल
तो शायद फिसल जाता-
किनारे कच्चे हों तो
नदी के तट पर फैलने लगती है कीचड़
ऐ लड़की !
अपने दाएं -बाएं बनाकर रखना तटबंध
और
फिर
सुविधापूर्वक बहती रहना
स्वछंद
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जनवरी की जम्हाइयां..
फरवरी की फरमाइशें...
मार्च की मिर्ची-सी लगती यादें..
अप्रेल की आपाधापी...
मई के मयखाने एहसास के
जून के जुनून
जुलाई की जुस्तुजू
अगस्त की अगन..
सितम्बर के सितम
और अक्टूबर की उक्ताहट
नवंबर के नव स्वप्न
और दिसंबर के दिलासे...
उफ्फ
पिछला साल भी बस
तेरे इर्द गिर्द रहा..-
उस ओर दबी हुई हैं जाने कितनी प्रतीक्षाएं
मनपसंद ऋतुओं के अवशेष भी नहीं रहे शेष
सड़ने लगा है आँखो का प्रतिबंधित पानी
आलंबन के अभाव में
अवरुद्ध नींदे स्वयं सो गईं
उधर अटकी हुई निगोड़ी उम्र में
पड़ गईं जाने कितनी सिलवट
दुख रही होगी तेरी भी बाज़ू
ऐ वक़्त
अब तो बदल ले तू करवट
...
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फ़िक्र है
बदले बदले मिज़ाज की
बात तुम्हारी नहीं
मौसम का ज़िक्र है
🌿 बुशरा-
चकरघिन्नी
हुई रात
घूम रही बिन बात
नभ की हाट मंहगी बहुत
हाथ बस एक
चांद-चवन्नी
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हानिकारक था
तो निषेध था
फिर भी
प्रतीक्षा के अधरों ने
फूंक दी उम्र की सिगरेट
अब
अधेड़ ऐशट्रे में पड़ा है
एक अधजला टोटा
लत बुरी ही सही
मिला एक और जन्म
तो
प्रतीक्षा द्वारा
फिर सुलगा लिया जाएगा
🌿 बुशरा
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मैं कांस
शरद की आहट से
हुमकती हुई
उल्लसित रोम-रोम
नभोन्मुख आस लिए
मैं कांस
सुखद शरद तुम-सा
आता है
चला जाता है
मैं फ़िर झुकाकर सर
प्रतीक्षारत रहती हूं
कि वियोग की उमस
कम होगी शायद
और मेरा रोआं रोआं
फिर से खिल उठेगा-