रुकी-रुकी सी लेखनी, थमे-थमे से भाव हैं।
विकल बड़ा है ये हृदय, हरे-हरे से घाव हैं।
क्यों शब्द सूझते नहीं, कलम से जूझते नहीं?
कागज पड़ा उदास है, ये कैसा ठहराव है?
लिख तू लुँगा लिखने को, अजी कवि सा दिखने को।
पर क्या ज्वार भाटे का, अजी आज उतराव है?
मेरे ही साहित्य की, कविता के लालित्य की।
याकि सकल संसार के, युँ डगमगाती नाव है।
कुछ भी लिखते जा रहे, छप भी रहा किताब में।
लेखन अशुद्ध लय हीन, नित ही पाता वॉव है।
देख मंच पे दुर्दशा, है खुद से कविता ख़फ़ा।
मंचों से साहित्य का, क्या टूट रहा चाव है?
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